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><><> जैन- गौरव स्मृतियों
आत्मा के विकास के लिए निकालता है। इतने समय में वह अपने हृदय में इतना आत्मबल भर लेता है कि दुनियादारी के कार्य करते हुए भी वह आत्मा से दूर नहीं होता । उन कार्यों में वह आसक्त और लिप्त नहीं होता । " तप्त लोह पदन्यास " की तरह वह सकम्प प्रवृत्ति करता है। जिस तरह घड़ी में एक बार चावी भर देने पर वह चौबीस घंटे तक चला करती है. इसी तरह सामायिक रूप आध्यात्मिक चावी देने से दिनभर की कियाओं पर उसका असर रहना चाहिए। यदि सच्चे हृदय से समझपूर्वक सामायिक की जाती है तो अवश्य उसका असर समग्र जीवनव्यापी होता है । यदि ऐसा नहीं होता है तो समझना चाहिए कि हमारी जीवन घड़ी में कोई गड़बड़ी है ।
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सामायिक व्रत का उद्देश्य यही है कि प्रतिदिन के अभ्यास से इतना आत्म-वल विकसित हो जाय - इतना समभाव पैदा हो जाय कि वह श्रात्मा दुनियादारी की प्रवृत्तियों को करते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से हीन और क्षीण न हो। उसके आत्मिक और व्यावहारिक जीवन में असंगति न हो । इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह स्थिति प्राप्त करना साधारण बात नहीं है । समभाव की साधना करना वच्चों का खेल नहीं है तो भी इसे प्राप्त करने का पुनः पुनः प्रयास करना चाहिए । इसीलिए यह व्रत शिक्षा व्रत कहा जाता है । शिक्षा का अर्थ है, अभ्यास । किसी भी विषय में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए उसका पुनः पुनः अभ्यास करना अवश्यक होता है । गणित में निपुण होने के लिए प्रतिदिन कई प्रश्न हल करने होते हैं । सैनिक कृत्यों में दक्षता प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन कवायद करनी होती है । इसी तरह आत्मिक चल के विकास के लिए, समभाव की साधना के लिए और विकारों की शांन्ति के लिए पुनः पुनः अभ्यास की आवश्यकता होती हैं । इसलिए प्रतिदिन सामायिक रूप आत्मिक अभ्यास करने को कहा गया हैं इसे शिक्षाव्रत कहने का यही अभिप्राय है ।
इस व्रत के समय गृहस्थ साधक भी लगभग त्यागी साधक की कक्षा का हो जाता है, केवल व्यापकता और प्रमाण में अन्तर रह जाता है । इस व्रत में मन-वचन और काया से सावध प्रवृति करते-कराने के त्याग हो जाते हैं । इस अवस्था में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव का विकास करना चाहिए | संसार के समस्त प्राणियों के प्रति मित्रता के भाव हो - किसी पर
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