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★ जैन-गौरव-स्मृतियां
हिंसा को उत्तेजन मिलता है अतः गृहस्थ को इनकी मर्यादा करनी चाहिए । यह मर्यादा एक दिन या अमुक समय के लिए भी की जा सकती है । इस भोगोपभोग की मर्यादा को भोगोपभोग परिमाण व्रत कहते हैं । इस व्रत के आराधन से आसक्ति कम होती है, त्यागभावना बढ़ती है और अहिंसा की वन प्रबल बनती है। इस त की आराधना से आत्मिक लाभ के साथ ही साथ : समष्टिगत सामाजिक - कर्त्तव्य का भी पालन होता है । इस दृष्टि से इस व्रत का विशेष महत्त्व है ।
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इसके अतिरिक्त दुनिया में कई अभक्ष्य पदार्थ खाने-पीने के काम में लिये जाते हैं, उनका विवेकी गृहस्थ को सर्वथा परित्याग करना चाहिए । मद्य, मांस, मधु, उम्बर आदि फल अनन्तकाय - कन्दमूलादि-अज्ञातफल, रात्रि भोजन, कच्चे दूध-दही या छाछ के साथ मिला कर दाल का खाना, वासीअन्न दो दिन से अधिक दिन का दही और रस चलित अन्न का सर्वथा त्याग करनाचाहिए ।
भोगोपभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का हैः-- (१) भोजन सम्बन्धी और (२.) व्यापार सम्बन्धी । भोजन सम्बन्धी व्रत का स्वरूप ऊपर बताय गया है । व्यापार सम्बन्धी त इस प्रकार है:
गृहस्थ अपनी आजीविका के साधन का चुनाव करते हुए इसबात का ध्यान रखता है कि वह साधन महारम्भ-निष्पन्न ( अधिक हिंसक ) न हो । जिस व्यापार में अधिक हिंसा होती हो ऐसा व्यापार गृहस्थ को नहीं करना चाहिए। शास्त्रकारों ने पन्द्रह ऐसे व्यापार बताये हैं जो महापाप के कारण होनेसे कर्मादान कहे जाते हैं, जिनका त्याग करना गृहस्थ के लिए आवश्यक है वे पन्द्रह कर्मादान इस प्रकार है: - ( १ ) अंगारकर्म ( कोयले वनाने का व्याप र ) ( २ ) वनकर्म ( ३ ) शकट कर्म (४) भाटक कर्म (५) स्फोटक कर्म ( ६ ) दन्त वाणिज्य ( ७ ) लाक्षा वाणिज्य ( ८ ) रस वाणिज्य ( ६ ) केश वाणिज्य (१० ) विप वाणिज्य ( ११ ) यंत्र - पीडन कर्म ( १२ निर्लाछन कर्म (१३) दावाग्निकर्म (१४ ) सरोवरादि परिशोपण कर्म और (१५) असती - पोपण कर्म ।
(४०२ (१६६)).
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