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> जैन-गौरव स्मृतियां *>*<><>ड
को सहन करता हुआ गोल सुन्दर आकृति का बन जाता है उसी तरह यह ) आत्मा भी विविध आघात प्रत्याघातों को फैलता हुआ जानते अजानते इतना सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है कि यह अपने वीर्योल्लास के कारण मोह के आवरण को कुछ अंश में शिथिल कर देता है । मोह के प्रभाव के कम होते
आत्मा विकास की ओर अग्रसर होता है और रागद्वेष की तीव्रतम दुर्भेद्य ग्रन्थि तोड़ने की योग्यता कतिपय अंशो में प्राप्त कर लेता है। आत्मा की इस
आत्मविशुद्धिको यथार्थ कृति करण कहा जाता है । इस करण के द्वारा आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों के बीच घोर संग्राम होने लगता है । एक ओर रागद्वेष और मोह अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर आत्मा को बन्धन में बांधे रखने का प्रयास करते हैं और दूसरी और विकासाभिमुखं आत्मा उनके प्रभाव को कम करने के लिए अपने वीर्य का प्रयोग करता हैं । इस . आध्यात्मिक संग्राम में कभी आत्मा की विजय होती है तो कभी मोह की । अनेक आत्मा ऐसे होते हैं जो लगभग ग्रन्थिभेद करने लायक बल प्रकट करके भी में रागद्वेव के तीव्रप्रहारों से आहत होकर अपनी पहली अवस्था में आ जाते हैं । अनेक आत्मा ऐसे भी होते हैं जो न हार खाकर पीछे हटते हैं और न विजय लाभ ही करते हैं । कोई २ आत्मा ऐसे भी होते हैं जो अपने प्रबल पुरुषार्थ और अदम्य वीर्योल्लास के कारण रागद्वेष की निविडतम ग्रन्थि का भेदन कर डालते हैं और इस संग्राम में विजयी बनते हैं । शास्त्रीय परिभाषा में इस ग्रन्थि भेद को अपूर्व करण कहते हैं ।
रागद्वेष की तीव्रतम ग्रन्थि का भेद हो जाने पर आत्मविशुद्ध और वीर्योल्लास की मात्रा जब बढ़ जाती है तब आत्मा मोह की प्रबलतम शक्ति दर्शनमोह पर अवश्य विजय प्राप्त करता हैं । इस विजयकारक आत्मशुद्धि को 'अनिवृत्ति करण' कहते हैं । इस करण में आत्मा में ऐसा सामर्थ्य पैदा हो जाता है कि वह दर्शन मोह पर विजय लाभ किये बिना नहीं रहता । दर्शन मोह पर विजय प्रति करते ही आत्मा को स्वरूप दर्शन हो जाता है । वह अपने शुद्ध चिदानन्दमय स्वरूप को देखकर हर्ष विभोर हो जाता है । उसकी अनादि कालीन भ्रान्ति दूर हो जाती है और वह अपने आप में उस कलंक ज्योति के दर्शन करता है जो स्फटिक के समान शुद्ध, बुद्ध, निरञ्जन और निर्विकल्प है । इस दुर्लभ अवस्था की प्राप्ति को शास्त्रीय भाषा में 'सम्यकत्त्व' अथवा 'बोधिलाभ' कहते हैं ।
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