SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . .. न-गौरव-स्मृतियां Se e - यह सम्यक्त्त्व की सुक्ति का द्वार, धर्म का आधार, गुणारत्नों का भण्डार और संसार सागर से पार करने वाला है। इसके होने पर ही ज्ञान और क्रिया में सम्यकपन आता है। यही श्रावक धर्म और साधु धर्म का मूल है। . इसके होने पर ही जीव अन्तर्दष्टा और मोक्षमार्ग का आराधक होता है। सम्यग्दृष्टा आत्मा, रागद्वेष से अतीत, कर्मशत्रुओं को जीतने वाले, तीन लोक के पूजनीय और परम शुद्ध आत्माओं को अपने आराध्य देव मानता है। वह अपने सन्मुख ऐसे वीतराग अरिहन्त या देव-गुरु और धर्म अर्हत् का परम आदर्श रखता है। उसकी भक्ति करता हुआ वह आत्मा अपने में उन गुणों का विकास करता हैं। वह रागद्वेष में फंसे हुए, अनुग्रह निग्रह करने वाले, और संसार के प्रपञ्चों में लगे हुए देवताओं को अपना इष्टदेव नहीं मानता है। जो स्वयं विकार के वशवी हैं, वे दूसरों के लिए आदर्श कैसे हो सकते हैं ? अतः सम्यकदर्शी आत्मा रागद्वेष से मुक्त, समस्त दोषों से रहित, शुद्ध स्वरूपी आत्माओं को अपना देव मानता है । भव बीजांकुर जनना रागाद्यः क्षयमुपागता यस्य । , ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनोवा नमस्तस्मै ।। . भवरूपी वृक्ष के बीजांकुर समान राग आदि दोष जिसके क्षीण हो गये हैं वह चाहे ब्रह्मा हो चाहे विष्णु हों, चाहे शंकर हों अथवा जिन हों उन्हें वह नमस्कार करता है। वीतराग आत्मा को वह अपना आराध्य देव मानता है। वीतराग परमात्मा के द्वारा बताये हुए मोक्षमार्ग पर जो चलते हैं, जो त्याग मार्ग के पथिक हैं, जो कनक-कामिनी के त्यागी हैं, जो स्वयं आत्मा को वीतराग बनाने का प्रयत्न करते हैं और दूसरों को भी वैसा उपदेश देते हैं वे निम्रन्थ मुनि सच्चे गुरु पद के अधिकारी हैं । 'गुरु' शब्दका अर्थ हृदय के अन्धकार को दूर करने वाला होता है। जो व्यक्ति सत्यज्ञान और त्याग के : प्रकाश से स्वयं प्रकाशित है वही दूसरे के हृदय के अन्धकार को मिटाने की , योग्यता रख सकता है । अतः सम्यग्दर्शी आत्मा ऐसे विशुद्ध आचरण सम्पन्न त्यागी गुरुओं को ही अपना गुरु मानना है ।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy