________________
* जैन-गौरव-स्मृतियां *
S
... अनादि काल से राग-द्वेष और मोह के प्रवल आवरण से आध्यात्मिक संग्राम आवृत होने के कारण विसाव दशा को प्राप्त हो रहा है। और बोधि-लाभ मोह के प्राबल्य से आत्मा अपने स्वातन्त्र्य को खोकर
___ कर्म पुद्गलों के आधीन हो रहा है। आत्मरूपी राजा अपने अतुल वैभव से वञ्चित होकर मोह-राजा के कारागार में कैद है। इस दीर्घकालीन परतंत्रता के कारण आत्मा का इतना अधिक अधःपतन होगया है कि वह अपने स्वतन्त्र स्वरूप को भूल गया है और पर-पुद्गलों को ही अपना रूप समझने लगा है । यह पतन की पराकाष्ठा है ।। .. आत्मा के प्रबलतम वैरी-मोह की दो प्रकार की शक्तियां हैं। प्रथम शक्ति से वह आत्मा को ऐसा वेजान बना देता है कि वह अपने स्वरूप को भूल जाता है और पर पदार्थों में आत्मवुद्धि करने लगता है। उसे स्वरूप पररूपका, अन्तर्भाव-बहिर्भाव का, और चेतन-अचेतन का भेद-ज्ञान नहीं होता इस लिए उसकी सब क्रियायें उन्मार्ग की ओर ले जाने वाली होती हैं । मोह की इस शक्ति को 'दर्शनमोह' कहते हैं। मोह की दूसरी शक्ति का नाम चारित्र मोह है जो म्वरूप दर्शन न हो जाने के बाद भी आत्मा को तदनुकूल प्रवृति करने से रोकती है । इन दोनों शक्तियों की प्रबलता और निर्बलता पर ही आत्मा के उत्थान और पतन का आधार है। इन दोनों में भी दर्शनमोह की प्रकृति विशेष रूप से आत्मगुणों की अवरोधिनी है। इसकी प्रबलता होते हुए दूसरी शक्ति कदापि मन्द नहीं हो सकती है। प्रथम शक्ति के मन्द मन्दतर ओर मन्दतम होने पर दूसरी शक्ति स्वयं मन्द होने लगती है अतः मोह की प्रथम शक्ति 'मिथ्यात्व' को नष्ट करने के लिए प्रथम प्रयत्न करना आवश्यक है इसके क्षीण होते ही स्वरूप का दर्शन हो जाता है। एक बार आत्मस्वरूप के दर्शन कर लेने पर वेड़ा पार होना निश्चित ही है। जिस जीवने एक बार अपने सत्य स्वरूप का अनुभव कर लिया वह अवश्य बन्धन से मुक्त होकर आत्मरमण में लीन होगा।
जिस प्रकार अग्निशिखा चाहे जितने नीचे स्थान पर जलाए जाने पर भी उर्ध्वगमन स्वभाव वाली है इसी तरह आत्मा भी चाहे जैसी . अवस्था में होने पर भी उर्ध्वगामी स्वभाव वाली है । विकास करना प्रायः स्वभाव है । अतः जैसे पार्वात्य नदी का पत्थर चट्टानों के आघात तत्याधाता