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जैन - गौरव - स्मृतियां > > >
आता है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में परस्पर सहचर
ज्ञान में सम्बन्ध हैं । जैसे सूर्य का ताप और प्रकाश एक दूसरे को छोड़कर नहीं रह सकते इसी तरह संम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक दूसरे के बिना नहीं रहते । सम्यग्ज्ञान के विना प्राणी अपने लक्ष्यका निर्धारण भी नहीं कर सकता । अतः लक्ष्यनिर्धारण और उसे प्राप्त करने के साधनोंको जानने के लिए सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है ।
उसके
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन से जो वस्तुस्वरूप की प्रतीति होता है अनुसार वर्ताव करना - तदनुकूल आचरण करना - सम्यक् चारित्र है । केवल जानने से ही इष्ट सिद्ध नहीं होसकता, उसके लिए सम्यक् चरित्र तदनुकूल पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है । लक्ष्यको जानने और उसे प्राप्त करने के उपायों को समझने से लक्ष्य पर नहीं पहुँचा जा सकता है। उसके लिए तदनुकूल मार्ग पर चलना आवश्यक होता है । मोक्ष का जीवनध्येय बनाकर उस मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करना सम्यक चरित्र है ।
. सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सम्मिलित परिपूर्णता से ही मोक्ष हो सकता है । केवल ज्ञान से, केवल दर्शन से, या अकेले चारित्र से मोक्ष नहीं हो सकता है । कतिपय ज्ञानवादी दर्शन ज्ञान से ही मुक्ति होना मानते हैं जब कि कतिपय क्रियावादी क्रिया से ही मोक्ष होना बतलाते हैं । यह एकान्तवाद जैनधर्म को अभीष्ट नहीं है । "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः " यह जैनधर्म का सिद्धान्त है । क्रिया रहित ज्ञान पंगु है और ज्ञान रहित क्रिया अन्धी है अतएव परस्पर निरपेक्ष ज्ञान और क्रिया कार्य साधक नहीं हो सकते । ये दोनों मिल कर ही मोक्ष के सावक होते हैं । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का अन्तर्भाव 'ज्ञान' में और सम्यक् चारित्र का समावेश 'क्रिया' में होता है । तात्पर्य यह है कि यथार्थ तत्व ज्ञान, उस पर अडोल श्रद्धा और तदनुकूल श्राचरण यही मोक्ष रूप जीवन ध्येय को प्राप्त करने के साधन हैं । यही मोक्ष का मार्ग है ।
जैन दृष्टि के अनुसार आत्मा अपने मूल स्वरूप स्फटिक के समान निर्मल, अनन्त ज्ञानमय, आनन्दमय और अनन्त शक्तिमय है । तदपि वह
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