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तृतीय चरिच्छेद :
अभाय
जैनकुमारसम्भव की कथा का मूल, कथा वस्तु तथा उस पर प्रभाव
करके प्रव्रज्या ग्रहण करने, पुलडा के आश्रम में उनकी तपश्चर्या, भरत के नाम के आधार पर देश के नामकरण आदि ऋषभदेव के जीवनवृत्त की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की आवृत्ति लगभग समान शब्दावली में कई प्रमुख पुराणों में हुई है।
भागवतपुराण' में श्री ऋषभदेव का चरित सविस्तार वर्णित है। इस पुराण में (५१३-६) नाभि तथा ऋषभ का जीवन चरित शुद्ध वैष्णव परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। जिसके अनुसार ऋषभ का जन्म भगवान यज्ञ पुरुष के आग्रह का फल था। जिसके फलस्वरूप वे स्वयं सन्तानहीन नाभि के पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। आकर्षक शरीर, विपुल कीर्ति ऐश्वर्य आदि गुणों के कारण ऋषभ (श्रेष्ठ) नाम से ख्यात हुए। गार्हस्थ्य धर्म का प्रवर्तन करने के लिए उन्होंने इन्द्र की कन्या जयन्ती से विवाह किया और श्रौत तथा स्मार्त कर्मों का अनुष्ठान करते हुए उससे सौ पुत्र उत्पन्न हुए। महायोगी भरत उनमें श्रेष्ठ थे। उन्हीं के नाम पर 'अजनाभखण्ड' भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ऋषभदेव के चरित का प्राचीनतम निरूपण जैन साहित्य उपांगसूत्रजम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में हुआ है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का संक्षिप्त विवरण ऋषभदेव चरित के कतिपय सूक्ष्म रेखाओं का आकलन है। उसमें आदि तीर्थंकर के धार्मिक तथा परोपकारी साधक स्वरूप को रेखांकित करने का प्रयत्न है। ऋषभ के सौ पुत्रों में भरत की ज्येष्ठता तथा उनके राज्याभिषेक का संकेत