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जैनकुमारसम्भव की कथा का मूल, कथावस्तु तथा उस पर प्रभाव
महाकाव्य के कथास्तु का मूल
जैनकुमारसम्भव की रचना सरस्वती की प्रेरणा से हुई है। इसके समर्थन में महाकवि श्री जयशेखर सूरि के शिष्य और इस काव्य के टीकाकार श्री धर्मशेखर सूरि जी ने अपने ग्रन्थ के प्रथम श्लोक की टीका करते हुए प्रमाण स्वरूप लिखा है कि श्री जयशेखर सूरि जी को स्तम्भ तीर्थ (खंभात) में ध्यानावस्था (समाधि) में बैठा हुआ देखकर श्री भारती ने कहा- हे प्रभो, निश्चिन्त मत बैठिये, मेरे कहने से "अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति" तथा "सम्पन्नकामां नयनाभिरामाम्" इन पद्यों से अपने काव्य की रचना कीजिए। श्री धर्मशेखर सूरि ने मंगलाचरण में अपने गुरु श्री जयशेखर सूरि जी की स्तुति करते हुए “यस्मै काव्ययुग प्रदान वरदा- श्री शारदादेवता" इस विशेषण से विभूषित किया है और इस काव्य के अन्तिम श्लोक में 'वीणादत्तवरः' इस पद का उल्लेख किया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सम्भवतः खंभा में कवि श्री का श्री भारती से वार्तालाप हुआ और कवि ने इसके परिणाम स्वरूप इस काव्य की रचना की। अतः स्पष्ट है कि इस काव्य की रचना स्तम्भतीर्थ (खंभात) में हुई।
सर्वप्रथम ब्राह्मण पुराणों में ऋषभदेव के कुछ प्रसंगों की स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनाई देती है। ऋषभदेव के अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अभिषिक्त