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प्रथम रिच्छेद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
रामचन्द्र गुणचन्द्र ने नमनार्थक 'नट' धातु से नाटक शब्द की व्युत्पत्ति पर आपत्ति की है। वे नर्तनार्थक 'नह' धातु से नाटक शब्द की व्युत्पत्ति मानकर उसका अर्थ प्रतिपादित करते हुए कहते है कि नाटक नाना प्रकार के सौन्दर्य के प्रवेश द्वारा ही सहृदयों के हृदय को आह्लादित
२. प्रकरण
आचार्य भरत के अनुसार नाटक की विषय वस्तु प्रख्यात् होनी चाहिए, जिसका नायक प्रसिद्ध उदात्त गुणयुक्त हो । राजर्षि वंश में उत्पन्न नायक का चरित्र, उसमें निबद्ध होना चाहिए। उसका दिव्य आश्रय से अङ्गीकृत होना उपयुक्त होता है । ९१
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'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से ल्युट प्रत्यय लगाकर प्रकरण पद निष्पन्न होता है। जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्रकृष्ट या उत्कृष्ट रचना आचार्य रामचन्द्र गुणचन्द्र के अनुसार प्रकरण वह है, जिसमे नायक, फल अथवा कथावस्तु पृथक-पृथक ( एक - एक अथवा दो-दो ) अथवा सभी ( अर्थात् तीनों ) प्रकृष्ट रूप से कल्पित किये जाते हैं । ९२
उपर्युक्त पद निर्वचन से एक बात स्पष्ट है कि प्रकरण में कल्पना की प्रधानता होती है- प्रकर्षेण क्रियते कल्प्यते । अर्थात् जिसमें नायक, फल, वस्तु तीनों कल्पित हो, या जिससे एक या दो की कल्पना हो अन्य इतिहासाश्रित हो । प्रकरण का वास्तविक चमत्कार उसकी कल्पना में ही होती है।९३
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