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प्रथम
द जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
घाट
उनके साथ अठारह उपरूपकों का भी उल्लेख किया है। वे इस प्रकार हैनाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लास्य काव्य, प्रेक्षक, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिल्पक, विलासिका, दुर्म्मलिका, प्रकरणी, हल्लीस और भाणिका । ८६
शारदातनय के अनुसार रूपक तीस माने गये हैं। उनमें दस नाट्क, प्रकरण (रसाश्रयभूत) भी परिगणित है। शेष बीस जिन्हें भावात्मक कहा जाता है, ये है - त्रोटक, नाटिका, गोष्ठी, संल्लाप, शिल्पक, डोंवी, श्रीगदित, भाणी, प्रस्थान, काव्य, प्रेक्षक, सट्टक, नाट्य, रासक, उल्लापक, हल्लीत, दुर्माल्लिका, मल्लिका, कल्पवल्ली तथा परिजातक । ८७
नाटक
भोजराज ने दृश्य काव्य के चौबीस भेद किये है। इस प्रकार रूपक के ये दश निर्विवाद भेद हुए - नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, उत्सृष्टिकांक अथवा अंक तथा ईहामृग । "
नाटक नाम की अन्वर्थकता बताते हुए आचार्य अभिनवगुप्त ने कहा है कि वह (नाटक) इसलिए नाटक कहलाता है कि वह सहृदयों के हृदय में प्रवेश कर रज्जनोल्लास द्वारा उनके हृदय तथा व्युत्पत्ति से परिचलित चेष्टा द्वारा उनके हृदय एवं शरीर दोनों को नचा देता है अर्थात् नाटक दर्शन से सहृदयों के हृदय तथा शरीर दोनों ही अपूर्व उल्लास के सरोवर में अवगाहन करने लगते है । ९
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