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________________ सप्तम् परिच्छेद : श्री जयशेखरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि अध्याय कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन/ मनीषीताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्ववत्से क्व चतावक वपुः । पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुनः वपुः पतत्रिणः ।। १०२ हिमालय के स्वरूप को रूपक अलंकार द्वारा इस प्रकार वर्णित करते है कि उसका स्वरूप कुछ अधिक ही निखरा हुआ प्रतीत होता है यः पूरयन् प्रदायित्वमिवोपगन्तुम । । १०३ समासोक्ति अलंकार द्वारा वसन्त रूपी नायक का व्यवहार इस प्रकार चित्रित किया गया है। वालेन्दु वक्राण्यविका वनस्थलीनाम् ॥ १०४ हिमालय के कथन ( ब्रह्मर्षियों से) में दीपक अलंकार की सुन्दर अभिव्यञ्जना हुई है अवेमि पूतमात्मानं द्वयेनेवद्विजोत्तमाः । मूर्ध्नि गङ्गाप्रपातेन धौतपादाम्भसा च वाः । ।१०५ पार्वती के कण्ठ एवं मौक्तिक माल के भूषण भूष्य भाव को अन्योन्य अलंकार में इस प्रकार वर्णित किया गया है कण्ठस्य तस्याः स्तनबन्धुरस्या मुक्ता कलापस्य च निस्तलस्य । अन्योन्यशोभाजननाद्बभूव साधारणौ भूषण भूष्यभावः ।। १०६ उपर्युक्त वर्णनों से स्पष्ट होता है कि जैनकुमारसम्भव एवं कालिदासीय कुमारसम्भव दोनों ही महाकाव्यों में अलङ्कारों की प्रभावपूर्ण योजना की गयी २५७
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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