SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम् परि .: श्री जयशेखरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन, तारकासुर के आतंक से मुरझाए हुए मुखों वाले देवताओं के सम्मुख ब्रह्मा जी वैसे ही प्रकट हुए जैसे कमलों से युक्त तालाब के सामने सूर्य प्रकट होता है तेषामाविरभूद्ब्रह्मा परिम्लानमुखश्रियाम्। सरसां सुप्त पद्मानां प्रातदीर्पितिमानीव।।९९ पार्वती के बिम्वाफल रूपी मुख को देखकर भगवान शंकर का धैर्य वैसे ही डगमगा गया जैसे चन्द्रमा के उदय होने पर समुद्र का जल डगमगा जाता है "हरस्तु किंचित्परिलुप्तधैर्यंञ्चन्द्रोयारम्भइवाम्वराशिः। उमा मुखं विम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि॥३०० उपमा के बाद अर्थान्तरन्यास कालिदास को सर्वाधिक प्रिय है। कुमारसम्भव में इसका प्रयोग वहुधा हुआ है। कुमार-सम्भव को 'सूक्ति सागर' बनाने में अर्थान्तरन्यास को विशेष योगदान है। हिमालय पर्वत के वर्णन प्रसंग में अर्थान्तरन्यास की अनुपम छटा द्रष्टव्य है "दिवाकरावक्षति यो गुहासु लीनं दिवाभीतमिवाऽन्धकारम्। क्षुद्रऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव"।। पार्वती की माता मैना द्वारा उन्हें (पार्वती) तपस्या से रोके जाने का वर्णन प्रसङ्ग में कवि ने उनके मनोभावों को दृष्टान्त अलंकारों के माध्यम से व्यक्त किया है २५६)
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy