SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम् क छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन सखी ने परिहासपूर्वक उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम अपने इन चरणों से सुरत विशेष की क्रिया द्वारा अपने पति शंकर के शिर पर विद्यमान चन्द्रकला का स्पर्श करो "पत्युः शिरश्चन्द्रकलामयेन स्पृशेति सख्या परिहासपूर्वम्। सा रंजयित्वा चरणौ कृताशीर्माल्येन तां निर्वचनं जघान।।" कु०सं० ७/१२ शंकर जी के दर्शन के लिए उत्सुक स्त्रियों की विभिन्न दशाओं का चित्रण में हास्य रस दर्शनीय है आलोक मार्ग सहसा व्रजन्त्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमाल्यः। बद्धं न संभावित एव तावत्करेण रुद्भोऽपि च केशपाशः।। प्रसाधिकाऽऽलम्वितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद्वरागमेव। उत्सृष्टलीला गति राग वाक्षादलक्तकाङ्कां पदवीं ततान।। विलोचनं दक्षिण मञ्जनेन संभाव्य तद्वञ्चित वामनेत्रा। तथैव वातायनसंनिकर्ष ययौ शलाकामपरा वहन्ती। जालान्तर प्रेषित दृष्टिरन्या प्रस्थान भिन्नां न ववन्ध नीवीम्। नाभि प्रविष्टा भरण प्रभेण हस्तेन तस्या व वलम्व्य वासः।। अर्धाचिता सत्वरमुत्थितायाः पदे-पदे दुर्निमिते गलन्ती। कस्याश्चिदासीद्रशना तदानीमङ्गुष्ठमूलार्पित सूत्र शेषा।। कुमार-सम्भव के ग्यारहवें सर्ग के श्लोक ४६-४८ में भी हास्य रस का चित्रण है।
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy