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सप्तम् परिच्छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि
कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन,
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वे सच्चे पारखी हैं। केवल पुरुष के ही नहीं अपितु नारी भावों के चित्रण में वे सिद्धहस्त कवि है। यथा
भगवान शिव समाधिस्थ है, जगदम्बा पार्वती उनकी सुश्रूषा में उपस्थित है। कामदेव दैवकार्य अर्थात् पार्वती-शंकर से पुत्र की प्राप्ति हेतु अपने प्रभाव का विस्तार करता है उसके प्रभाव से जगत पिता भगवान शंकर की दशा का वर्णन करते हुए कहते है
हरस्तु किञ्चित्परिलुप्तधैर्यचन्द्रोदयारम्भइवाम्बुराशिः।
उमा मुखं विम्वफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि।।" 'जैसे चन्द्रोदय होने से अत्यन्त गम्भीर समुद्र भी क्षुब्ध हो उठता है, उसी प्रकार शंकर जी भी (काम के सम्मोहन नामक वाण चढाने के कारण) कुछ अधीर से हो उठे और विम्वाफल के समान लाल ओठ वाली पार्वती के मुख को अपनी तीनों आँखों से देखने लगे।
उपर्युक्त पद्य में जहाँ काम के प्रभाव से प्रभावित शिव के भावों का चित्रण किया गया है, वहीं पदार्थ अर्थात् समुद्र के परिवर्तित भावों का भी सुन्दर वर्णन हुआ है।
पार्वती के परिवर्तित भावों को कालिदास जी इस प्रकार व्यक्त करते
है
"विवृण्वती शैलसुतापि भावमङ्गे: स्फुरद्वालकदम्व कल्पैः।
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