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षष्ठ सहिद : जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा
विलीन हो गयी, जिस प्रकार अध्यापक के सामने छात्र की चंचलता, में कवि ने लज्जों की स्थापना कर नारियों के स्वभाव का मनोरम चित्र उपस्थित किया है और इसी प्रकार पुरुषों के चरित्र-चित्रण में इनका वर्णन इस प्रकार
तनोषि तत्तेषु न किं प्रसादं, न सांयुगीनायदमीत्वयीशा
स्याद्यत्र शक्तेरवकाशनाशः, श्रीयेत शुरैरपि तत्र साम।।६९ प्रभु ऋषभदेव के लिए वैषयिक सुख विषतुल्य हैं, वह अवक्रमित' से काम में प्रवृत्त होते है और उचित उपचारों से विषयों को भोगते हैं
"त्रिरात्रमेवं भगवानतीत्या निरुद्धपित्रानुपरूद्धचित्तः। ततस्तृतीयेऽपिपुमर्थसारे, प्रावर्ततावक्रमतिः क्रमज्ञः।।६२
भोगाईकर्म ध्रुववेद्यमन्य जन्मार्जितं स्वं स विभुविवुध्य। मुक्तयेककामोऽप्युचितोपचारै रभुङ्क्त ताभ्यां विषयानसक्तः।।६३
उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट है कि जयशेखर सूरि के काल में समाज में धर्म, कर्म के प्रति निष्ठा थी। लोगों का जीवन आदर्शमय था और लोग संयमित जीवन व्यतीत करते थे। यह वर्णन कुमारसम्भव के विभिन्न वर्णनों से प्रभावित है।
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