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________________ षष्ठ सिकोट : जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका, अदृष्टशोका न्यविशन्त लोकाः।५५ अर्थात् जनता सुखी एवं शोक रहित थी। सुमंगला के आवास वर्णन के प्रसंग में उस समय की सम्पन्नता का पुनः दर्शन हो जाता है यत्र नीलामलोल्लोचा - मुक्ता मुक्ताफलस्रजः। वभुर्नभस्तलाधार - तारकालक्षकक्षया।।५६ सौवर्ण्य: पुत्रिका यत्र, रत्नस्तम्भेषु रेजिरे। अध्येतुमागता लीलां, देव्या देवाङ्गना इव।। यन्मणिक्षोणिसंक्रान्त - मिन्दुं कन्दुकशङ्कया। आदित्सवो भग्ननखा, न वाल्मः कमजीहसन्।।५७ व्यालम्बिमालमास्तीर्ण - कुसुमालि समन्ततः। यददृश्यत पुष्पास्त्र - शस्त्रागारधिया जनैः।। स्वामी ऋषभदेव के विवाह में जाते हुए, प्रियतम् का स्पर्श पाकर किसी देवाङ्गना की मैथुनेच्छा एकाएक जागृत हो जाती है। भावोच्छवास से उसकी कंचुकी टूट गयी। वह कामवेग के कारण असहाय हो गयी फलस्वरूप वह प्रियतम की चाटुकारिता के लिए जुट गयी २०६
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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