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________________ षष्ठ पहिछेद : जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा गतो न जाड्यंद्युतिहेतुहेतिभृत्। तव ज्वलद्वह्विविलोकनात्सुतो, द्विषः पतङ्गनिव धक्ष्यति क्षणात्।। उपर्युक्त स्वप्न विवेचन में निहित जयशेखर की कल्पना की उदात्तता का स्पष्ट दर्शन होता है। जो न केवल कल्पना की दृष्टि से अपितु जीवन में स्वप्नों के महत्त्वों को भी निर्धारित करता है। (घ) परम्परा के आधार स्वरूप महाकाव्य की समीक्षा विश्व के प्रत्येक महाकाव्य में परम्पराओं का उल्लेख मिलता है तथा इस सन्दर्भ में प्रत्येक महाकवि ने अपने-अपने महाकाव्यों में परम्पराओं यथा लोकस्वभाव, सामाजिक जीवन तथा धार्मिक मान्यताओं के वर्णनों की परम्परा का निर्वाह किया है। जैनकुमारसम्भव श्री जयशेखर सूरि ने भी अपने महाकाव्य में परम्पराओं का मनोरम वर्णन किया है। इस महाकाव्य में परम्पराओं का इस प्रकार उल्लेख द्रष्टव्य है। इस महाकाव्य में नायक का चरित्र परम्परागत है। ऋषभदेव के चरित्र के सन्दर्भ में जो श्लोक प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किया गया है उससे उस समय के शासकों की चारित्रिक विशेषताओं का पता चलता हैं। स एव देवः स गुरुः स तीर्थं स मङ्गलं सैष सखा स तातः। २०४
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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