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________________ पञ्चम, पतिलाद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष, प्राप्त हुआ है। स्वप्नभङ्गभय कम्प्रमानसो --------- नायिपीष्ट चरितार्थतां हलाः।१०/५८ यन्मरीचिनिकरे मनु विष्वक् -------- विष्टमदातस तमस्मै। ५/२५ दोष विवेचन सर्वप्रथम काव्यगत दोषों के सन्दर्भ में संक्षिप्त परिचय देना अप्रासंगिक नही होगा। काव्यगत दोषों की संख्या में उत्तरोत्तर विकास हुआ है। सर्वप्रथम आचार्य- भरत ने दस दोषों का उल्लेख किया है- गूढार्थ, अर्थान्तर, अर्थहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायपदपेत, विषम, विसन्धि एवं शब्दच्युत।१२६ इसके पश्चात् आचार्य भामह ने अपने काव्यालङ्कार में चार स्थलों पर दोषों का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम छ: काव्य दोषों को गिनाया है- नेयार्थ, क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक, अयुक्तिगत और गूढशब्दाभिधान।१३७ तदन्तर श्रुतिदुष्ट, अर्थदुष्ट, कल्पनादुष्ट और श्रुतिकष्ट ये चार-चार वाणी दोष कहे हैं।१३८ इसी क्रम में मेधावी के अनुसार हीनता असम्भव, लिंगभेद, वचनभेद, विपर्यय, उपमानाधिक्य, और असदृशता नामक सात दोषों का विवेचन किया है।३९ तत्पश्चात् काव्यसौन्दर्य के घातक अठारह प्रकार के दोषों का उल्लेख किया है- अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय अपक्रम मतिभ्रष्ट, शब्दहीन, भिन्नवृत्त, विसन्धि, देशविराधी, कालविरोधी, कलाविरोधी, लोकविरोधी, आगमविरोधी, प्रतिज्ञाहीन, हेतुहीन और दृष्टान्त हीना१४० १७२
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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