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________________ पञ्चम परिच्छेद: जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष, मन्दाक्रान्ता प्रहर्षिणी, हरिणी तथा शार्दूलविक्रीडित इन सत्तरह छन्दों की योजना है। उपजाति इनका प्रिय छन्द है। जैनकुमारसम्भव में अनुष्टुप, वियोगिनी और पुष्पिताग्रा छन्द का प्रयोग नही हुआ है। काव्य की अन्यान्य विधाओं की भांति इस महाकवि ने छन्दों का विधान भी प्रौढ़ रूप से किया है। जैनकुमारसम्भव में अलंकार विवेचन काव्य में अलङ्कारों का महत्व सर्वातिशायी है। आचार्य भरत से लेकर आज तक साहित्य जगत में किसी न किसी रूप में इस कलात्मक कल्पना विधान का अनुसंधान हो रहा है। काव्य में अलङ्कार भावाभिव्यक्ति के सशक्त साधन हैं। अलङ्कारों के परिधान में सामान्य भी विलक्षण सौन्दर्य से दीप्त हो जाता है। आचार्य दण्डी ने अपने काव्यादर्श में “काव्यशोभाकरान धर्मान् अलङ्कार प्रच्क्षते" कहकर अलङ्कारों के महत्व का आख्यान किया है। स्पष्ट है कि काव्य और अलङ्कारों में चोली-दामन का सम्बन्ध है। वैसे अलङ्कारों की संख्या अनिश्चित है किन्तु सर्वप्रथम इसे शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार दो रूपों में विभक्त किया गया है। यहाँ इस महाकाव्य में प्रयुक्त कुछ अलङ्कारों का लक्षण और तत्सम्बन्धित उदाहरण प्रस्तुत किया जायेगा। जैनकुमारसम्भव में निहित अलङ्कार चमत्कृति के साधन नहीं है वे काव्य सौन्दर्य को प्रस्फुटित करते है तथा भावप्रकाशन को समृद्ध बनाते हैं। जैनकुमारसम्भव में अलङ्कारों का सहज विधान दृष्टिगोचर होता है।
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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