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पञ्चम परिचछेद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलड्डार, गुण एवं दोष
रोमाञ्चयुक्त ऊपर मुख किये जम्भाई लेकर, स्तनतट को ऊपर उभार कर, धूलता को चञ्चलता से घुमाकर स्वेद जल के द्वारा भीगे शरीर से लाज को बहाकर तुमने स्पृहापूर्वक जिसके मुख पर क्षीर-सागर के फेन पटल के समान श्वेत कटाक्षों की छटा विखेरी है, वह अनोखा धन्य है।
(घ) भाव
"सुख दुःखादिकैर्भावैर्भावस्तद्भवभावनम्।।'६ अर्थात् सुख-दुःख आदि भावों के द्वारा सहृदय के चित्त को भावित कर देना ही भाव कहलाता है। जैसा कि नाट्य शास्त्र में कहा गया हैअहो इस रस या गन्ध से सव भावित या वासित हो गया है। ये भाव स्थायी तथा व्यभिचारी दो प्रकार के होते है।
(ङ) सात्विक भाव
"पृथग्भावा भवन्त्यन्येऽनुभावत्वेऽपि सात्विकाः
सत्त्वादेव समुत्पत्तेस्तच्च तद्भावभावनम्।।" अर्थात् अन्य जो सात्त्विक है यद्यपि में अनुभाव ही है तथापि पृथक रूप से भाव कहलाते है क्योंकि इनकी ‘सत्त्व' से ही उत्पत्ति हुआ करती है सत्त्व का अर्थ है किसी भाव से भावित होना। दूसरे के हृदय में स्थित दुःख और हर्ष की भावना में प्रायः उसी प्रकार के हृदय वाला हो जाना सत्त्व कहलाता है। सात्त्विक भाव आठ प्रकार के होते है
"स्तम्भप्रलय रोमाञ्चाः स्वेदोवैवर्ण्य वेपथू