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पञ्चम सहिद : जैनकुमारसम्भव मे रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
हार, गुण एवं
ये स्थायिभाव मनुष्य के हृदय में स्थायी रूप से सदा विद्यमान रहते है इसलिए स्थायिभाव कहलाते हैं। सामान्य रूप से अव्यक्तावस्था में रहते है, किन्तु जब जिस स्थायिभाव के अनुकूल विभावादि सामग्री प्राप्त हो जाती है तब वह व्यक्त हो जाता है और रस्यमान या आस्वाद्यमान होकर रसरूपता को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ विभाव, अनुभाव, सात्विक भाव और व्यभिचारी भावों पर संक्षेप में दृष्टि डालना प्रासंगिक है
(ख) विभाव
"ज्ञायमानतया तत्र विभावो भावपोषकृत्। आलम्वनोद्दीपनत्वप्रभेदेन स चद्विधा।।४
अर्थात् उन रस के उद्भावकों में विभाव वह है जो स्वयं जाना हुआ होकर स्थायीभाव को पुष्ट करता है। वह आलम्बन और उद्दीपन के भेद से दो प्रकार का होता है।
यथा- यह दुष्यन्त आदि ऐसा है अथवा यह शकुन्तला आदि ऐसी
(ग) अनुभाव
"अनुभावों विकारस्तु भावसंसूचनात्मकः'५ अर्थात् रति आदि भावों को सूचित करने वाला विकार शरीर आदि का परिवर्तन अनुभाव है भ्रूविक्षेप सहित कटाक्षादि। उदाहरण- हे मुग्धे,
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