SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ: पात्रो का विवेचन, यो गर्भगोऽपि व्यमुचन्न दिव्यं ज्ञानत्रयं केवल संविदिच्छुः । विशेषलाभं स्पृहयन्नमूलं स्वं संकटेप्युज्झति धीरवुद्धिः ।। मध्येनिशं निर्भर दुःख पूर्णा स्ते नारका अप्यदधुः सुखायम् ॥ यत्रोदिते शस्तमहोनिरस्ततमस्ततौ तिग्मरुचीव कोकाः ।। निवेश्य यं मूर्धनि मन्दरस्या चलेशितुः स्वर्णरुचिं सुरेन्द्राः ॥ प्राप्तेऽभषेकावसरे किरीट मिवानुवन्मानवरत्नरूपम् ।। गर्भावस्था में ही वे विज्ञान से सम्पन्न तथा कैवल्य के अभिलाषी थे। उनके जन्म से जगतीतल के क्लेश इस प्रकार विलीन हो गये जैसेसूर्योदय से चकवों का शोक तत्काल समाप्त हो जाता है। उनकी शैशवकालीन निवृत्ति से काम को अपने अस्त्रों की अमोघता पर सन्देह हो गया। मादक यौवन को धारण करते हुए भी उन्होंने अपने मन को ऐसे वश में कर लिया जैसे- कुशल अश्वारोही उच्छृंखल घोड़े को नियन्त्रित करता है १०३
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy