SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ mr पूर्व पक्ष -- ब्रह्मविचार ही प्रारंभरणीय है, धर्मविचार नहीं, क्योंकि-वेद के व्यासकर्ता भगवान वेदव्यास ने उस पर कोई विचार ही नहीं किया तथा धर्म का फल स्वर्ग भी एक तुच्छ वस्तु है । कल्पसूत्र के अनुसार, असंदिग्ध होने पर ही धर्म का अनुष्ठान होता है, अनुष्ठान के प्रकार में संदेह होने पर कल्पसूत्र भाष्य तथा निरन्तर यज्ञानुष्ठानशील याज्ञिकों का अनुसरण करना पड़ता है, धर्म ज्ञान के लिए मीमांसक से परामर्श आवश्यक नहीं होता। अंगों सहित वेदाध्ययन करने वाले को असंदिग्ध अनुष्ठान के लिए, पूर्वमीमांसा की अपेक्षा नहीं होती। परम कृपालु वेद, कूपतुल्य गहन कमों में, अंधे व्यक्ति की तरह पतित, किंकर्तव्य विमूढ संसारी व्यक्तियों को संसार से मुक्त करने के लिए चित्त शुद्धि का उपदेश देते हैं । जब कि-पूर्व मीमांसा, इसके विपरीत कर्म बन्धन का प्रवचन करती है, इसलिए. भी पूर्वमीमांसा विचारणीय मैवम् । किं विचारमात्र न कर्त्तव्यं, पूर्वकाण्ड विचारो वा, नाद्यः, तुल्यत्वात् समर्थितत्वाच्च । द्वितीये सामान्य न्यायेन संदेहे निवार्ये लक्षणवत्तदुपयोगः, अनिष्टतया निरूपणं न मीमांसादोषः किन्तु विचारकाणां स्वभाव भेदात् । किं च आवश्यकत्वादपि, निवृत्तानामपि यागादिज्ञानस्यावश्यकत्वम्, चित्तशुद्ध्यर्थत्वात् । परमाश्रयभेदेन प्रकारभेदः कायिकादिभेदात् । तत्राद्यस्य वाचिको द्वितीयतृतीययोः कायिकः चतुर्थस्य मानसिक इत्याश्रमिणाम् । तस्मादेकेनैव चरितार्थत्वात् किं द्वितीयेनेति प्राप्ते । उत्तर पक्ष ऐसा उचित नहीं है कि पूर्व मीमांसा पर विचार ही न किया जाय । प्रश्न यह है कि-विचार करने की बात ही छोड़ दी जाय अथवा पूर्व काण्ड पर विचार न किया जाय ? विचार करने की बात छोड़ तो, उत्तर काण्ड पर भी विचार नहीं कर सकेंगे, क्यों कि दोनों समान हैं, आपने स्वयं ही "प्राप्रतिज्ञानात्" इत्यादि से विचार का प्रतिपादन किया है । पूर्वकाण्ड पर विचार न करने से कार्य नहीं चल सकता, क्यों कि-वेद में जब परस्पर विरोधी विधियाँ मिलती हैं तब उसके निवारण के लिए, कल्पसूत्र के लक्षणों की तरह, पूर्व मीमांसा की उपयोगिता है । पूर्व मीमांसा को जो अनिष्ट रूप से निरूपण किया जाता है, वह विचारकों का दोष है मीमांसा का नहीं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy