SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - वेदांत विचार का फल ब्रह्म साक्षात्कार नहीं है, वेदांत विचार शब्दशेष मात्र ही तो है (उससे शाब्दबोध मात्र ही तो होता है) शब्द परोक्ष ज्ञान मात्र कराता । [अर्थात् “तत्त्वमसि' के विचारने से केवल इतना ही अर्थ ज्ञात होता है कि-"तू वह है", तत पद वाच्य उस ब्रह्म का साक्षात्कार तो हो नहीं जाता] । शब्द से साक्षात्कार होता है, इसका कोई प्रमाण तो मिलता नहीं। "तुम दसवें व्यक्ति हो" इत्यादि कथन में तो देहादि की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, वैसी उपलब्धि "तत्त्वमसि" इत्यादि में तो होती नहीं। यदि वेदांत विचार से ही साक्षात्कार संभव होगा तो, मनन निदिध्यासन आदि विधियां ही व्यर्थ हो जावेंगी। न चाधिकारिभेदः कल्पनीयः, शब्दज्ञाने तत्कल्पनायां प्रमाणाभावात । अत्यन्तासत्यप्यर्थ शब्दस्य ज्ञानजननात प्रमाणसंकरापत्तिश्च । मनसा तज्जननेऽपि तथा। तस्मात प्रथमं शाब्दमेव ज्ञानमिति मंतव्यम , अनुभवसिद्धत्वात, इदानींतनानामपि शमादि रहितानां निर्विचिकित्सित वेदार्थज्ञानोपलब्धेः संन्यासानुपपत्तिश्च । ___ साक्षात्कार के संबंध में अधिकारी की कल्पना भी नहीं की जा सकती [अर्थात् उत्तम व्यक्ति को वेदांत वाक्य के विचार मात्र से साक्षात्कार हो जाता है और सामान्य व्यक्ति को मनन आदि द्धारा होता है ], शब्द ज्ञान में इस प्रकार की कल्पना का कोई प्रमाण नहीं मिलता। अत्यंत असत्य अर्थ वाले शब्द भी अर्थ ज्ञान तो कराते ही हैं, सभी को उसका समान रूप से अर्थावबोध होता है, ऊँचे नीचे का कोई भेद नहीं होता। शब्द को अपरोक्ष ज्ञान जनक मानने से सांकर्य दोष भी होगा [ अर्थात सामान्य अधिकारी को वेदांत वाक्य से परोक्ष ज्ञान होता है तथा विशिष्ट को अपरोक्ष (प्रत्यक्ष साक्षात्कार) होता है ऐसा भेद मानने से शाब्दबोध में सांकर्य दोष घटित होगा], इसलिए. यही मानना समीचीन है कि-शम दम आदि के पूर्व शाब्द ज्ञान मात्र ही होता है, यही अनुभव सिद्ध भी है। शम दम आदि शून्य, विचार समर्थ व्यक्तियों को यदि वेदांत निर्णय न हो सकता तो, आजतक के उन विचारकों को संशय रहित वेदार्थ निर्णय न हो पाता । शब्द से अपरोक्ष ज्ञान मानने से संन्यास भी उपपन्न नहीं हो सकता (अर्थात् ऐसा मानने से-“वेदांत विज्ञान सुनिश्चितार्थाः, संन्यास योगाद् यतयः शुद्धसत्वाः" इत्यादि वेदांतार्थ निर्णय के बाद संन्यास का उल्लेख करने वाली उक्ति ही व्यर्थ हो जायगी, संन्यास की आवश्यकता ही नष्ट हो जायगी)
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy