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________________ ( ६४५ ) णमेव युक्तमितिहि शब्देन द्योत्यते । एतेन "रसो ३ स" इति श्रुतेर्लीलाविशिष्ट एव प्रभुस्तथेति तादृशएव परगफलमिति ज्ञापितं भवति । ऊपर के सूत्र से श्रुति सम्बन्धी विरोध का परिहार कर इस सूत्र से लौकिक विरोध का परिहार करने की दृष्टि से शंका उपस्थित करते हैं कि-जब लीला नित्य है तो ''कल तुम्हारे घर आऊंगा" भगवान का यह कथन कैसे संगत होगा, जिस काल में आगमन की बात कही उस समय भी तो उनकी स्थिति होगी। इसका समाधान करते हैं कि भगवान की लीला का ऐसा कुछ नियम है किउसको बिपरीत ही अनुभूति होती है, वैसा वहाँ होता नहीं किन्तु अनुभूति वैसी ही होती है । जिस स्वरूप से भगवान ने भक्त के घर जाने की बात कही थी, उस भक्त को अपने घर में उस भगवत्स्वरूप की स्थिति का ज्ञान नहीं होता। जिस विशिष्ट देशकाल में जो लीला होती है, भक्त को उस लीला में उसी के अनुरूप ज्ञान होता है, अन्य विषयक कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। इसी प्रकार द्वितीय लीला में अनुभव होता है कि मैं पूर्ण लीला में वहीं से इसमें आ रहा हूँ। किन्तु रस का उदय रसस्वरूप लीला में उपस्थित होने पर ही होता है, लीला रस भगवदात्मक भगवद रूप ही होता है, अतः भक्त की अपनी स्वतंत्र अनुभूति का प्रश्न ही नहीं उठता । “सर्व माप्नोति सर्वशः" इत्यादि श्रुति, एक ही भक्त के, सब प्रकार की लीलारस के अस्वाद की बात कहती है इसमें उक्तरोति से ही लीला में भक्त की स्थिति बतलाई गई है, यह अलौकिक वस्तु है, ऐसा ही मानना चाहिए यही वैदिक ऋषियों के कहने का तात्पर्य है । अलौकिक दृष्टि से विचार करना उचित नहीं है, अपितु अलौकिक रीति से ही विचार करना उचित है । इसी विवेचन मे "रसो वै सः" श्रुति के अनुसार प्रभु को विशिष्ट लीला और तदनुरूप परमफल की बात भी ज्ञात हो जाती है । दर्शयतश्चवं प्रत्यक्षानुमाने ।४।४।२०।। न च लौकिकयुक्ति विरोधोऽत्र बोधकत्वेन मंतब्यः किन्तु साधकत्वेन। यतः प्रत्यक्षानुमाने श्रुतिस्मृती अपि लौकिक युक्ति अप्रसारणालौकिके भगवत्सम्बन्धिन्यर्थेऽन्यथाभावनं निषेधति, नेषातर्केण मतिरापनेया। "परास्य शक्तिविविधैवश्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च" अलौकिकास्तु ये भावा न तांस्तणयोजयेत् । श्री भागवते च-"न हि विरोधउभयं भगवत्यपरिगणितगुणगण ईश्वरेऽनवगाह्यमाहात्म्येऽर्वाचीनविकल्प वितर्क विचारप्रमाणाभास कुतर्कशास्त्र कलिलान्तः
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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