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________________ वत्तुलीला कैवल्यम्" इत्यादि से भक्त का नित्यलीला मध्यपातित्व निश्चित होता है। "नान्यत पश्यति" इत्यादि श्रुति के आधार पर जीव का जगद्व्यापार रहित भोग पूर्व सूत्र में बतलाया ही गया है। अब विचारना यह है कि"नान्यत्पश्यति" प्रकरण में ही "सर्वपश्यति ऐसी सर्वविषयक दर्शन की बात कही गई है तो "नान्यत्पश्यति" वाली प्रथम बात कैसे हो सकती है। एक ही भक्त का, देशकाल भेद से की गई अनेक लीलाओं से सम्बन्ध होता है, वे लीलायें नित्य रूप से नहीं होती। जिस काल जिस देश में जो लीला होती है उस समय उस स्थान में नित्य होती हैं। जैसे कि एक जीव की अनेक रूपता सम्भव नहीं है वैसे ही उसको नित्यता भी सिद्ध नहीं होती। कहते हैं कि श्रुति में सर्व पद से जगत् का उल्लेख नहीं है अपितु देश काल के भेद से होने वाली लीलाओं में एक भक्ति के लीलानुसार उतने ही रूप भी होते हैं, उन सबका मण्डल वहाँ रहता है उन सबका वाचक वह सर्व शब्द है। इसी प्रसंग में आगे कहते हैं"सर्वमाप्नोति सर्वशः", "वह एक तीन पांच सात नौ, ग्यारह, एक सौ ग्यारह, बीस हजार होता है" इत्यादि । जैसे कि मण्डलाकार रूप से स्थित पुरुषों में किसी एक को पहला कहना शक्य नहीं है, वैसे ही लीला के ये रूप भी हैं, यही बतलाने के लिए मण्डल शब्द का प्रयोग किया गया है। विकारावति च तथाहि स्थिति माह ।४।४।१६॥ नन्वेवं सति "श्वस्त्वद्रोहमायास्ये" इति प्रभुणोक्त तदाशया तत्स्थितिपपद्यते । नित्यत्वाल्लोलायास्तस्य कालस्य तदागमनस्य च तदापि वत्तंमानत्वात् । तथा प्रभूक्तिरपि नोवपद्यत इत्याशंक्य समाधत्तै । इह भगवल्लीलाप्रकृतिस्तद् विरुद्धोऽर्थो विकार इत्युच्यते । तत्र न वर्तते तज्ज्ञानं तादृशं च भवति । यत् स्वरूपं प्रति तथा वदति तस्य स्वगेहे तदाभगवद् स्थितिज्ञानं न भवतीत्यर्थः। उपलक्षणं चैतदतो यद्देशकालविशिष्टा यादृशी या लीला तस्यास्तादृश्या एव तल्लीलामध्यपातिनो भक्तस्य ज्ञानं, नान्यविषयकमिति ज्ञेयम् । अतएव द्वितीयस्यापि, मांपूर्वमुक्त आसीत्तेनागत इत्येव ज्ञानभवति । तदेव हिरसोदयोऽतो रसस्वरूपमध्यपातित्वाल्लीलाया रसस्य च भगवदात्मकत्वाद् भगवदरूपत्वेन सर्वमुपपद्यते लीलायाम् । अत्र प्रमाणमाह-तथाहि स्थिति माहेति । “सर्वमाप्नोति सर्वशः" इति श्रुति रेकस्यैव भक्तस्य सर्वशः सर्वेः प्रकारैः सर्वलीलारसमाप्नोति इति वदन्त्युक्तरीत्येव लीलायांस्थितिमाहेत्यर्थः । अतो वस्त्वेवेदमलौकिकमीदृशामिति मन्तव्यं वैदिकरितिभावः । अलौकिकेऽथ लौकिकरीत्यनुसरणं न युक्त किन्त्वलौकिक रीत्यनुसर
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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