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________________ ( ६३० ) तथा च भक्तन्यैव कामावक्तुमुचितास्ते च न विग्रहं बिना संभवंति । किंचविपश्चितेति विशेषणेन विविधंपश्यचिद् रूपत्वमुच्यते । कामभोगोक्ति प्रस्ताव एतदुक्त्या तदुपयोग्येव सर्व वाच्यम् । एवं सति भक्त विविधभावान् पश्यति स्वयं भोगचतुरश्चेत्युक्तं भवति । एतेनापि भक्तविग्रहः सिद्धयति । परमाचार्य बादरायण ऐसा नहीं मानते 'ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" की व्याख्या वे विग्रहवान् के रूप में करते हैं, वे कहते हैं कि-"यो वेद निहितं गुहायां" वाक्य में गृहा का उल्लेख है जो कि विग्रहवान व्यक्ति में ही संभव है। प्रथमान्त पद "प्राप्नोति" कह कर ब्रह्मविद की परप्राप्ति में स्वतंत्रता दिखलाई गई है। उस स्वतन्त्र जीव का ही ब्रह्म के साथ भोग बतलाया गया है। इससे ब्रह्म की भी जीव के समान क्रियावत्ता निश्चिद होती है। किन्तु वह अप्राधान है भोग में प्रधानता तो जीव की हो होती है। यही मानना उचित है, भोग बिना विग्रह के संभव नहीं हैं । 'विपश्चिता' जो विशेषण दिया गया है वह विविध दर्शनरूपता का बोधक है। कामभोग की बात इस विपश्चित्व कथन से देखता है वह स्वयं भोग चतुर है यही तात्पर्य है। इससे भी भक्त विग्रहवान निश्चित होता है। ननुविग्रहस्यागन्तुकत्वेन लौकिकत्वादलौकिकेन ब्रह्मणा भोगो विरुद्ध इत्यत आह, पूर्वभावादिति । भक्तप्राप्तेः पूर्वमेव भगवद् दित्सितभोगानुरूपविग्रहाणां सत्वान्न विरोधः। किंच, उक्त श्रुतिसूत्रः पुरुषोत्तमेन सह भक्तस्य कामभोगोनिरूपितः। स यावताऽर्थेन विना नोपपद्यने तावान् स श्रुत्यभिमत इति मंतव्यम् । तथा च ब्रह्म संबंधयोग्यानि शरीराणि नित्यनि संत्येव । यथाऽनुग्रहोयस्मिन् जीवे स तादृशं तदाविश्य भगवदानन्दमश्नुत इति सर्वमवदातम् । भक्त का वह दिव्यभोग शरीर तो आगन्तुक होता है अतः लोकिक ही हो सकता है अलौकिक ब्रह्म के साथ भोग के विरुद्ध है, इस संशय का उत्तर देते हैं कि –भक्त मुक्ति प्राप्त के पूर्व ही भगवान द्वारा प्रदत्त भोगानुरूप शरीर प्राप्त करते हैं । अतः विरुद्धता नहीं होती । उक्त श्रुति सूत्रों से, भक्त का कामोपभोग पुरुषोत्तम के साथ बतलाया गया है। वह भोग जितने प्रयोजन के बिना सम्पन्न नहीं हो सकता उतना ही श्रुतिसम्मत है यही मानना चाहिए। ब्रह्म सम्बन्ध के योग्य शरीर नित्य ही होते हैं। जिस जीव पर जितना अनुग्रह होता है उसी के अनुरूप वह जीव परमगुहा में प्रविष्ट होकर भगवदानन्द को भोगता है। ऐसा मानने से सबकुछ सुसंगत हो जाता है ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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