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________________ ( ६२८ ) जीवः प्राकृतेन शरीरेण भुंक्त, उताप्राकृतेन इति ? तत्र भोगस्य लौकिकत्वे तदायतनस्यापि तादृशेनैव भवितव्यमित्रति मन्वानं प्रत्याह - ब्राह्मण, ब्रह्म संबंधिना ब्रह्मणा भगवते व स्वभोगानुरूपतया सम्पादितेन सत्यज्ञानानन्दात्मकेन शरीरेण पूर्वोक्तानश्नुत इति जैमिनिराचार्योमनुते । तत्र हेतुरूप न्यासादिभ्य इति । " ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इति ब्रह्मविदः परप्राप्ति प्रतिज्ञाय तदर्थस्यैवोपन्यासोऽग्रिमयमर्चा क्रियते ' सोऽश्नुत" इत्यादिना । तथा च परप्राप्तेमुक्तिरूपत्वात् पुष्टिमागयायास्तस्या एवं रूपत्वादक्षरब्रह्मणः पुरुषोत्तमायतन रूपत्वात्तदात्मकमेव शरीरंतस्यमुचितं नतु प्राकृतम् । एतद्बोधनायैवाग्रेऽन्नमयादीनि विभूतिरूपाण्युतानि । भक्तशरीरे प्रतीयमानानामर्थानां विभूतिरूपत्वेन ब्रह्मात्मकत्वं तेन साधितंभवति । इदमेवादिपदेनबहुवचनेन च ज्ञाप्यते । एतदानन्दमयाधिकरणे प्रपंचितमतो नाऽत्र पुनरुच्यते । यत्र कर्मवादी जैमिनिरेवं मनुते तत्रान्येषामेवाङ्गीकारे किमाश्चर्यमिति ज्ञापनाय तन्मतोपन्यासः कृतः । पूर्व अधिकरण से, जीव, भगवदनुग्रहातिशय इच्छा से बहिशविर्भूत होकर गुणातीत पुरुषोत्तम के साथ सभी कामनाओं का भोग करता है, ऐसा सिद्ध किया गया । अब विचारते हैं कि आविर्भूत जीव प्राकृत शरीर से भोग करता है या अप्राकृत से ? भोग तो लौकिक वस्तु है अतः उसको भोगने वाला भी प्राकृत ही हो सकता है, ऐसा मानने वालों को उत्तर देते हैं कि- ब्रह्म संबंधी होने से, भगवान ही स्वभोगानुरूप शरीर उसे देते हैं अतः वह सत्य ज्ञानानन्दात्मक शरीर से भोगों को भोगता है ऐसा जैमिनि आचार्य मानते हैं । " ब्रह्मविदाप्नोतिपरम् ” वाक्य में जिस पर प्राप्ति की चर्चा है, "सोऽश्नुते" इत्यादि में उसी का विस्तार किया गया है । पर प्राप्ति रूप मुक्ति होने से वह पुष्टिमार्गीय हैं अतः वह अक्षरब्रह्म से भिन्न पुरुषोत्तम प्राप्ति रूप है अतः उनके अनुरूप शरीर भी होगा यही मानना उचित है, प्राकृत मानना ठीक नहीं है । यहीं बतलाने के लिए उक्त प्रसंग में आगे अन्नमय आदि विभूति रूपों का वर्णन भी किया गया है । भक्त के शरीर में प्रतीय होने वाले जिन विभूति रूप चिन्हों का उल्लेख किया गया है उससे उसकी ब्रह्मात्मकता निश्चित होती है । यह सब आदि पद और बहुवचन के प्रयोग से ज्ञात होता है | आनन्दमयाधिकरण में इसका विश्लेषण कर चुके हैं, इसलिए पुनः नहीं करेंगे। जब कर्मवादी जैमिनि की ऐसी मान्यता है तब और लोग इसे स्वीकारें उसमें क्या आश्चर्य है यह बतलाने के लिए ही सूत्रकार उनके मत का विश्लेषण करते हैं ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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