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________________ ( ६२७ ) व्यापको मायातत्गुणसंबन्धरहितो यः स एवोच्यते । कुतः ? प्रकरणात् । “ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इत्युपक्रम्यतत्पाठाद् गुणातीतस्यैवतत्प्रकरणमिति तदेवात्र ब्रह्मशब्देनोच्यत इत्यर्थः। परब्रह्म निगुण है, कामभोग गुणसाध्य वस्तु है अतः "सह ब्रह्मणा" वाक्य में ब्रह्मपद सगुण ही मानना समीचीन हैं जीव की मुक्ति इससे संभव भी नहीं है । इस संशय पर कहते हैं कि इस प्रसंग में माया और उसके गुण से रहित व्यापक आत्मा का बोधक ब्रह्मपद है, देखें "ब्रह्म विदाप्नोतिपरम्" वाक्य से प्रसंग का उपक्रम किया गया है, इससे निश्चित हो जाता है कि यह प्रकरण गुणातीत का ही उसे ही यहाँ ब्रह्मशब्द से उल्लेख किया गया है। अविभागेन दृष्टत्वात ।४।४।४॥ ननु "ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" इतिभिन्नंवाक्यम्, ऋग्भिन्नाऽतोनक प्रकरणामिति सगुण मेव तत्र ब्रह्मपदेनोच्यत इत्याशंक्य प्रतिवदति पूर्व वाक्येन समविभागेनैवेयम् ऋक् पठिता, न तुविभागेन, कुतः ? दृष्टत्वात्, ब्रह्मविदिति वाक्यानन्तरं तत्पूर्वोक्तमर्थ प्रतिपाद्यत्वेनाभिमुखीकृत्यैषगुंक्त ति श्रुतिदृश्यते तदेषाऽभ्युक्ता इति । तेन पूर्ववाक्योक्तार्थ मधिकृत्यैवगुच्यत इति गुणातीतमेव तदत्र वाच्यमित्यर्थः। __ "ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" यह भिन्नव'क्य है और उक्त ऋचा भिन्न है अतः एक प्रकरण न होने से प्रतीत होता है कि उक्त ऋचा में प्रयुक्त ब्रह्मपद सगुण ही है । ऐसी आशंका करते हुए प्रतिवाद करते हैं कि-पूर्ववाक्य के समान ही यह ऋचा कही गई है इसमें भेद नहीं है "ब्रह्मविद्" वाक्य के बाद उसी अर्थ का प्रतिपादन किया गया है "तदेषाऽभ्युक्ता" पद उक्त बात का स्पष्ट उल्लेख करती है, जिससे निश्चित होता है कि पूर्ववाक्योक्त अर्थ के अनुरूप उक्त ऋचा कही गई है, अतः उसमें कहे गए ब्रह्मपद से गुणातीत अर्थ मानना हो समीचीन है। २. अधिकरण : ब्राह्मण जैमिनिरुपन्यासादिभ्यः ।४।४।५।। पूर्वेणमुक्तो जीवो भगवदनुहातिशयेच्छातो बहिराविभूतो गुणातीतेन पुरुषोत्तमेनैव सहसर्वान् कामानश्नुत इतिसिद्धम् । अथ अत्रैवेदं विचार्यते, आवितो.
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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