SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 691
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६०८ ) . उनको प्राप्त करने के लिए वैसी उपासना भी क्यों की जाय । “अचिरादिना तत्प्रथितेः" सूत्र में जो यह कहा कि-ज्ञानमार्गीय को ही अचिरादि प्राप्ति होती है, भक्तिमार्गीय को नहीं, यह कथन भी असंगत होगा। "जो कर्मों से जो तप से और जो ज्ञान वैराग्य से" ऐसा उपक्रम करते हुए "मेरी भक्ति से वह सब कुछ मेरे भक्त तत्काल प्राप्त कर लेते हैं, वे लोग स्वर्ग, अपवर्ग और मेरा धाम जो कुछ चाहते हैं, वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं।" इत्यादि भगवद वाक्य से निश्चित होता है कि भक्त को भी ये सारे वांच्छित भोग प्राप्त हो सकते हैं, यदि ऐसा न होता तो प्रभु न कहते। इसलिए भक्ति सुख को छोड़कर अन्यत्र कामना ही क्यों की जायगी, इस आकांक्षा पर सूत्र प्रस्तुत करते हैं उभयच्यामोहात् तत् सिद्ध।४३॥६॥ अत्रेदं ज्ञेयम्-देवयानः पन्था अपि भगवतैव सृष्टोऽस्ति, तथा चोक्तहेतुभिस्तत्र कस्यापि कामनाभावे तत्सृष्टिळा स्यादतो भगवानेव कांश्च व्यामोहयति ज्ञानिनोमर्यादामार्गीयभक्तांश्चअतस्तत्कामनासिद्धः तत्फलभोग इति । यत्वचिरादिमार्गगतृणां देहविगोन सम्पिण्डितकामत्वेनास्वातंत्र्यं व्यामोहः । कार्यकारणसामर्थ्य मिति व्याख्यानम् तन्न साधीयः । व्यामोहशब्दस्यास्यान्यथाज्ञानवाचकत्वेनासामर्थ्यावाचकत्वात् । तथा सत्यचिलोकमपि न प्राप्नुयात्, प्रापकाभावादित्युक्तम् । उक्त विषय में ऐसा समझना चाहिए कि-देवयान मार्ग भी भगवान का बनाया हुआ है, भक्तिमार्ग से ही सब कुछ प्राप्ति संभव है। अतः व्यर्थ में इस मार्ग में जाने के लिए प्रयास न करने पर इसकी सृष्टि व्यर्थ हो जायगी। इसलिए भगवान कुछ लोगों को व्यामोहित करके ज्ञानमार्गी और मर्यादामार्गीय भक्त बनाकर इस मार्ग के लोकों की कामना की सिद्धि के लिए इस मार्ग का फलभोग कराते हैं। व्यामोह दोनों का होता है, अचिरादि मार्ग में जाने वाले मर्यादी भक्त देह छूटने पर इन्द्रियों के समूह से भगवद् इच्छा से व्यामोहित होकर आगे बढ़ते हैं। ज्ञानी अचिरादि लोकों में निश्चेष्ट भाव वाले आगे बढ़ाये जाते हैं। व्यामोह शब्द अन्यथा ज्ञानवाचक है, अन्यथा ज्ञान, मामर्थ्य न होने से ही तो होता है। यदि व्यामोह न रहे और वे स्वतंत्र हों तो अर्चिलोक में नहीं जा सकते । क्योंकि उनको वहां पहुंचाने वाला तो कोई होता नहीं। उन लोकों का भोग व्यामोह हो उनको वहां पहुंचाता है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy