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________________ श्री बादरायण ब्रह्मसूत्र प्रणुभाष्य प्रथम अध्याय प्रथम पाद १ अधिकरण अथातो ब्रह्मजिज्ञासा | ११११११ | इदमत्र विचार्यते, वेदांतानां विचार आरंभणीयो न वेति । किं तावत् प्राप्तम् । नारम्भणीय इति, कुतः, "सांगोऽध्येयस्तथा ज्ञेयो वेदः शब्दारच बोधकाः । निःसंदिग्धं तदर्थाश्च लोकवद् व्याकृतेः स्फुटाः ॥" अर्थज्ञानाथ विचार प्रारंभरणीयः । तस्य च ब्रह्मरूपत्वात्, तज्ज्ञाने पुरुषार्थो भवतीति न मंतव्यम् । विचारं विनापि वेदादेव सांगादर्थं प्रतीतेः । दांतों पर विचार होना चाहिए या नही, यह विचारणीय विषय है । कहें कि नहीं करना चाहिए, क्योंकि - "वेद का अंगों सहित अध्ययन करना चाहिए, अर्थ बोधक शब्दों को भी जानना चाहिए, अध्ययन के बाद ही असंदिग्ध अथों का, लौकिक शब्दार्थो का प्रयोग किया जा सकता है।" इत्यादि से ज्ञात होता है कि अर्थ ज्ञान के लिए ही शास्त्र पर विचार किया जाता है । शब्द ब्रह्मरूप है, उसके ज्ञान मात्र से परमपुरुषार्थ की प्राप्ति हो जाती है, ऐसा नहीं मानना चाहिए । विचार के बिना भी वेदाध्ययन से अर्थावबोध हो जाता है । 1 न चार्थज्ञानमविहितम् अविचारिताश्च शब्दा नार्थं प्रत्याययन्तीति वाच्यम् । शेयश्चेति विधानात्, "गोती शीघ्री शिरःकंपी तथा लिखितपाठकः । श्रनर्थज्ञोऽल्पकंठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥” इति बाधोपलब्धिश्च । शब्दश्चक्षुरादिवच संदिग्धार्थ प्रतिपादकः, तदर्थश्च व्याकरणादिना निश्चीयते, यथा लौकिकवाक्ये तथा वेदेऽपि न च तद्विरुद्ध निर्णेतव्यम् श्रप्रामाणिकत्व प्रसंगात् । तस्माद् वेदार्थज्ञानार्थं विचारो नारंभणीयः ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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