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________________ (1 ५५२.. ) .' पूर्वार्थनिरूपणव्यवच्छेदाय तु शब्दः । ज्ञानिनो हिभगवन्तं आत्मत्वेनेवोपासते तस्या नैरन्तर्येऽनेकजन्म भिस्तथैव तेषां हृदि भगवान् स्फुरति । तदा स्वानंदांशस्याथाविर्भावाद ब्रह्मभूतः सन्नात्मत्वेनैव ब्रह्म स्फुरति इति तदानंदात्मकः संस्तमनुभवति । एतादृशः सर्वोपकारीति पदार्थमपि तस्मै भगवता ज्ञानं दत्तामिति प्रवचनमपि तस्य फलान्तः पातीत्याधिकारिण्युपस्थिते तथेवोपदिशति च। एतदेवाह-आत्मेत्यादिना । उप समीपे गमनं प्रवेश इति यावत् । सूत्रस्थ तु शब्द पूर्वनिरूपण की पथकता का द्योतक है। ज्ञानी, भगवान को आत्मारूप से उपासना करते हैं, उन्हें निरन्तर अनेक जन्मों तक वसी उपासना करने के बाद सफलता मिलती है भगवान् उनके हृदय में अतिकाल में स्फुरित होते हैं। उस स्थिति में वे स्वानंदांश के अविर्भाव से ब्रह्मभूत होकर आत्मारूप से ब्रह्मस्फूर्ति की अनुभूति करते हैं, वे उस समय अपने को परमात्मानंद रस रूप ही मानते हैं। ऐसे ज्ञानी सर्वोपकारी हो जाते है, दूसरों के कल्याण के लिए भगवान उन्हें ज्ञान प्रदान करते हैं जिसके फलस्वरूप वे, उपस्थित अधिकारियों को उस ज्ञान का उपदेश कर कृतार्थ करते हैं यही बात "आत्मेति" इत्यादि सूत्र से कही गई है। उन ज्ञानियों का उप अर्थात् समीप में गमन अर्थात् प्रवेश हो जाता है इसलिए वे ऐसा करने में समर्थ हो जाते हैं। अथवा--ननु ज्ञान भक्त्योरनावृत्तिः फलमत उत्तमेते, नतु कर्मेत्याशयेन कर्मणः फलमाबृत्तिरिति यनिरूपितं तत्रेदं चिन्त्यते । “न स पुनरावर्तते" इति श्रुतिः सर्वथाऽनाबृत्तिमाहोत सावधिकीताममरशब्देन तन्निवृत्तिमिव । किमत्र युक्तम् । सावधिकीमेवेति । तथाहि पूर्व कर्मनयत्यस्य त्वयाप्यंगीकार्यत्वात् तस्यप्ररोहैक स्वभावत्वात्तस्य दुतिक्रमत्वात्तत्फलानुभवस्य आवश्यकत्वात् । . ज्ञान और भक्ति का फल तो अनावत्ति है अतः वे दोनों उत्तम हैं, कर्म में अनावृत्ति नहीं हैं, इस आशय से कर्म का फल आवृत्ति बतलाया गया अब ये विचारते हैं कि-"न स. पुनरावर्त्तते" जो श्रुति है, वह एक दम अनावृत्ति बतलाती है अथवा किसी निश्चित अवधि की सूचना देती है, जैसी की अमरपदवाची देवताओं को सावधि निवृत्ति होती है। विचारने पर तो सावधि ही समझ में आती है, पूर्वकर्म की नियामकता तो आपको भी स्वीकृत है, वे कर्म प्ररोहक स्वभाव वाले होते हैं (अर्थात् अंकुरित होने वाले होते हैं) उनको सहज ही नहीं काटा जा सकता, उनका फल तो भोगना आवश्यक है ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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