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ब्राह्म, प्राजापत्य, दैव, मानुष या अन्य भूतों के रूप को ग्रहण करता है" इनी के आगे कहते हैं "उन लोकों का भोग कर अंतिम कर्मानुसार पुनः इसी लोक में कर्म भोग के लिए आता है।" इत्यादि ____अत्र हेत्वन्तरमाह-लिंगाच्च-वेदानुमापकत्वेन स्मृतिलिंगमित्युच्यते । सा च भगवद्गीतासु-"विद्यामाम्" इत्युपकम्य पठ्यते "एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते" इति । "आब्रह्म मुवनाल्लोकाः पुनरावत्तिन्नेऽर्जुन" इति च ।
उक्त मत की पुष्टि में स्मृसि की सम्मति को बतलाने के लिए लिंगाच्च सूत्र प्रस्तुत करते हैं, कहते हैं कि-"विद्यामाम्" "त्रयी धर्ममनुप्रपन्ना गतागतं" आब्रह्मभूवनाल्लोकः इत्यादि भगवद्गीता के वाक्य भी उक्त तथ्य की ही पुष्टि करते हैं।
अथवा "यथाकारी यथाचारी तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन" इति श्रुतिवर्तमान जन्मकर्मणोः पूर्वजन्मसंबंधिकर्मानुमापकत्वं वदति इति कर्मिणः पुनर्जन्मावश्यकमिति ज्ञायते । एवं सति लिंगत्वेन निरूप गादित्यर्थः संपद्यते । निवृत्तिमार्गीयस्यापितस्य ज्ञानोपकर्तत्वमात्रं, न तु जन्मनिवर्तकत्वं मानाभावात् ।
"जैसा कर्म करता और जैसा आचरण करता है वैसा ही होता है, साधु कर्म करने वाला साधु होता है, पाप करने वाला पापी होता है, पुण्य आचरण से पुण्यात्मा, पापाचरण से पापात्मा होता है" इत्यादि श्रुति वर्तमान जन्म कम को पूर्व जन्म संबंधी कर्म के अनुरूप बतलाती है । इससे कर्म करने वाले के पुनर्जन्म की बात निश्चित होती है। निवृत्तिमार्गाय के लिए जो कहा गया कि-"निवृत्तं कर्म सेवेत्" उसका तात्पर्य है कि, कर्म का आचरण, निवृक्तिमार्गी के लिए, ज्ञान का सहयोगी सिद्ध होता है, वह अपने ज्ञान से ही जन्म से निवृत्त हो जाता है, कर्म से वह आबद्ध नहीं होता ।
एवं कर्मफलं विचार्य ज्ञान फलं विचारयति-इस प्रकार कर्म के फल का विचार करके ज्ञान के फल पर विचार करते हैं
२. अधिकरण :
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आत्मेतितूपगछन्ति ग्राहयन्ति च । ४११.३।।