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________________ अतो धार्मिक पुत्रविधानमैहिकं कर्म श्रुतौ दृश्यतेऽतस्तत्समयोक्तिरावश्यकी । अन्यथा श्रुतौ उक्तमस्ति इति प्रस्तुतवाधेऽपि तत्करणे फल प्रतिबन्धः स्यादिति भाद। __ वैदिक कर्म करने के तात्पर्य को बतला कर लौकिक कर्मों के अनावश्यक होते हुए भी उनकी कर्तव्यता को बतलाते हैं-प्रभु भजन में लौकिक कर्मों का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, अतः उनको करना चाहिए। यदि ऐहिक कर्मों को अनावश्यक कहेंगे तो उसकी अर्हता का प्रतिपादन व्यर्थ हो जायेगा, सो बात है ही नहीं। क्योंकि उक्त वाक्य में ऐहिक कम की कर्तव्यता का स्पष्ट. महत्त्व है, उस वाक्य में-"आचार्यकुलात्" ऐसा उपकर्म करते हुए आगे "धार्मिकान् विदधति' कह कर धार्मिक पुत्र बनाने का विधान बतला कर ऐहिक कर्म पर बल दिया गया है । यदि इस पर भी ऐहिक कर्म का महत्त्व नहीं मानेंगे तो, श्रुति में तो वह महत्त्वपूर्ण उक्ति है ही; तुम्हारे कथनानुसार तो फिर ऐहिक कर्म मोक्ष प्रप्ति में बाधक हो जायगा । (अब तुम स्वयं ही सोच लो कि तुम्हारी बात मानना सही है या श्रुति की) एवं मुक्तिफलानियमस्तदवस्थावधृतेस्तदवस्थावधृतेः ।३।४।५१।। ननु "तस्य तावदेवं चिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ संपत्त्स्ये' इति श्रतो मुक्त्यनन्तरं ब्रह्मसंपत्तिः श्रूयते । सा तु पुरुषोत्तम संगे लीलारसानुभावातिरिक्ता वक्तुमशक्या । सुक्तोपसृप्यव्यपदेशात् "मुक्तामपि सिद्धानां नारायण परायणः, सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने" इति स्मृतेश्च । मुक्तेः फलं भक्तिरसानुभव एव सत्युक्त गृहिणस्तत्फलं भवति न वेति संशये निर्णयमाह-एवं भूतस्योक्त रूपस्य मुक्तस्य मुक्तेर्यत्फलं भक्तिरसानुभवः तस्य. अनियमः तस्य भगवदिच्छानीत्वात् । साधनाप्राप्यत्वात् । अतएव "मुक्ति ददाति कहिचित्स्म न भक्तियोगम्" इति शुक वाक्यम् । अत्र औत्सर्गिक हेतुमाह-तदवस्थेति । "न स पुनरावर्त्तते" इत्यस्यावृत्या मुक्त्यवस्थाया एव सार्वदिकत्वेन निर्धारः क्रियते । यद्यपि एवं मुक्तिफलाभावनियम एवायाति, न तु तदनियमस्तथापि-"तस्य तावदेवचिरं" इत्यादि प्रमाणे "न स पुनरावर्त्तते" इति श्रुत्या समं विरोधाभावाय औत्सर्गिकी तदवस्था । तत्फलं तुः कस्यचिद् इत्यनुग्रहेण पुष्टी प्रवेशने भवति इति स्वाभिप्रायं प्रकटी कुर्वता बादरायणेन अनियम इत्युक्तम् । एवं सति "न स पुनरावर्त्तते" इति श्रुतिः प्रपंचे पुनरावृत्ति निषेधति, न तु तदतीतेऽपीतिज्ञेयम् समाप्ति ज्ञापनाय आवृतिः।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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