SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 617
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५३४ ) तथापि “आश्रमादाश्रमंगच्छेत्" इति वाक्यात् अत्राश्रमान्तरत्वाभावेन त्यागस्याविहितत्व शंकाभावायेयमुक्तिरिति । अब ये विचारते हैं कि-प्रचुर भगवत् भाव मात्र में लीन और साक्षात् स्वरूप भोग में लीन व्यक्तियों को गृहत्याग करना चाहिए या नहीं ? फल तो मिल ही जाता है अतः नहीं त्याग करना चाहिए, इस मत का विरोधी "म द्वार्ता", इत्यादि वाक्य मिलता है जिससे निश्चित होता है गृह बन्धक रूप से त्याज्य है, इस मत के निराकरण के लिए सूत्रकार तु शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि-भात्र मात्र हो या साक्षात् प्रभु संबंध हो दोनों अवस्थाओं में गृहत्याग आवश्यक है स्मृति और आचार दोनों से ही यह बात सिद्ध होती है। स्मृति जैसे "उद्धव ! तुम सबकुछ छोड़कर मुझमें मन लगाकर स्वस्थ्यमन से समदृष्टि होकर पृथ्वी में विचरण करो" इत्यादि स्मृति भगवद् भाव वाले व्यक्ति की तरह, भगवत्संग वाले व्यक्ति के भी गृह त्याग की बात कहती है, ऐसे लोगों का आचार भी वैसा ही सुना जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि-आश्रम धर्म के रूप में गृह त्याग की चर्चा “यदहरेव" इत्यादि श्रुतियों में की जा चुकी है, अब पुनः उसके विषय में विचार कर रहे हैं तो, यह उससे भिन्न विषय है। उक्त वाक्यों में जो गृह त्याग की बात है वह मुमुक्षु के लिए मोक्ष में सहायक हैं, किन्तु जो उक्त दो प्रकार के भक्त हैं जो कि अनवरत प्रभुरसास्वाद में निग्मन रहते हैं उनके लिए तो सांसारिक वासना विशेष रूप से प्रतिबंधक होती है, विप्रयोग रसानुभाव के रूप में उसका त्याग विशेष रूप से कर्तध्य है । यद्यपि अपनी अभीष्ठ प्राप्ति में अड़चन रूप होने से वे स्वतः छूट जाते हैं "आश्रमादाश्रमंगच्छेत" वाली जो नियमित त्याग की प्रणाली है, उससे भक्ति मार्ग का कोई संबंध नहीं है, भक्ति मार्ग में त्याग हर अवस्था में होता है। स्वामिनः फलश्रु तेरित्यात्र यः ।३।४।४३॥ पुष्टि मार्गीय भक्तस्य विहितत्वादिति ज्ञान प्रयोजकम् तत्र हेतुः तस्य भक्ति मार्ग स्वामिनः श्री गोकुलेशादेव भक्तस्य श्रुतेरतो बहिर्गमनं न साधनत्वेनात्र कार्य मिति भावः । अत्र "यमेवैषवृते" इति श्रुतिरनुसंधेया । एतदनु पदमेव पठ्यते । “नायमात्मा बलहीनेन लभ्य" इति । अत्र भगवद्वरणानन्तर मपि जीव बलंकतमद् यदपेक्षौ भगवल्लाभ इति जिज्ञासां सर्वात्मभाव एव बलंमिति निर्णीयते । तस्यैव · मर्यादाबलोपमर्दकत्वाद् भगवद्वशीकार
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy