SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 600
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की, इसी प्रणाली से प्रवृत्ति होती है । विद्या का माहात्म्य बड़े प्रयास के उपरान्त समझ में आता है। इसलिए रोचक उपाख्यानों से उसे समझाया गया है, जो रहस्य उनमें निहित है वह, उपाख्यान रहित विद्या को. निरूपण करने वाली श्रुतियों से ही आया है, अतः उन दोनों में एक वाक्यता है । "आचार्यवान् पुरुषोवेद" अर्थात् "गुरुवाला ही परमात्मा को जान सकता है" इस श्रुति में कथित ज्ञानार्जन, बिना उपाख्यानों के संभव नहीं है, उसके लिए ही गुरु शिष्य संवाद रूप उपाख्यानों का गुम्फन किया गया है । अथवोपाख्यानरहितायां श्रुतौ यथाज्ञानं निरूप्यते तथैव "अधीहिभगव इतिहोपसाद सनत्कुमारं नारद" इत्याख्यानेष्वपि निरूप्यत इति अनाख्यान श्रुत्यैकवाक्यतयैवाख्याने ज्ञानस्वरूपोपबन्धात् प्रतिपादनादित्यर्थः नकट्यवाचनोपपदेन वस्तुसती या तत्तद्गुरु तत्तच्छिष्यकथा तत् सामीप्यमत्रोच्यते । अन्यथा सामीप्यासंभवादतः कल्पितत्व शंका निरासः। जैसे कि उपाख्यान रहित श्रुति में ज्ञान का निरूपण किया गया है वैसे ही "भगव इति होपसाद" इत्यादि आख्यान में भी किया गया है । अनाख्यान और आख्यान दोनों में ज्ञान स्वरूप की ही विवेचना है अतः दोनों में एक वाक्यता है । उक्त सूत्र में उप पद नकट्य वाची है जो कि-गुरु शिष्य के निकट संबंध को बतला रहा है । गुरु शिष्य के संवाद को कल्पित नहीं कह सकते सत्रकार उप पद से कल्पितत्व शंका का निरास कर रहे हैं। नन्वमपि पारिप्लवार्थत्वे न बाधकं पश्याम इति चेद् उच्यते - अश्वमेध प्रकरणे-"मनुर्वैवस्वतो राजा" इत्यादीन्याख्यानानि यत्र पठितानि तत्र सामान्यतस्तेषां विनियोगः, सर्वाण्याख्यानानि आख्यानान्तरपरोऽपि, प्रकरणस्य नियामकत्वात् । एवं सति यदा पारिप्लवाख्यकर्म प्रस्तावस्तदा विशेष विनियोग उक्तः । "पारिप्लवमाचक्षीत्" इति । तत्र प्रथमेऽहनि “मनुवैवस्वतो राजा" इति, द्वितीये अहनि "इन्द्रो वैवस्वतः" इति, तृतीयेऽहनि-"यमो वैवस्वतो राजां" इति आख्यान विशेषाः वाक्यशेष विनियुज्यन्ते । आख्यान सामान्यपरत्वे त्वहोविशेष उपाख्यान विशेष विधानं न स्यात् । अतएव पारिप्लवं इत्येक वचनमतः नाख्यानान्तर गन्धसंबंधोऽपि, प्रापकाभावात् ।। यदि कहें कि-इतने पर भी हम, औपनिषद् आख्यानों को पारिप्लवार्थक मानने में कोई बाधा नहीं समझते, तो सुनिये-अश्वमेध यज्ञ के प्रकरण में
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy