SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 589
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाक्ययौविरोधाभावाय विषयौभिन्नः कल्प्यते, नाद्यः, अंश्रुतेः। न द्वितीयः, "" यद हरेव विरजेत्" इति श्रुत्या वैराग्यवतः प्रब्रजन विधानात्तेनैव विषयभेदा'सिद्धी तत्कल्पनानवकाशात् । तेन "नापुत्रस्यलोकोऽस्तीति" श्रतिरप्यविद्वद् विषयिणीति न विरोधः। विद्धान्सः प्रजो न कामयन्ते' इति श्रुतेः । एतेन "ऋणत्रय अपाकरणमषि प्रयुक्त्त वेदितव्यम । अविद्वद् विषयत्वात् । यदि कहैं कि-दश्यफल' वाले कारीरी चित्र आदि यज्ञों का विधान भी 'मिलता है, अतः उक्त निर्णय उचित नहीं है-उसपर कथन ये है कि -नित्यकर्म को ज्ञान का साधन कहा गया है, ब्रीहिपशु आदि तो उसके निर्वाहक मात्र हैं इसलिए शेषत्व रूप से उनका विधान किया गया है। "वीरहा" आदि 'श्रुति, साग्निक गृही के आलस्य आदि दोष से छूटने की चर्चा कर रही है, 'किसी अन्य आश्रम को ग्रहण की चर्चा हो सो बात नहीं है। अन्यथा ऊक्त विधि का उच्छेद हो जायगा और वह विधि व्यर्थ हो जायगी। अनधिकार की बात को लेकर इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इस पर प्रश्न है किअंधे लूले लंगड़े आदि के लिए संन्यास की विधि है अथवा जीवन पर्यन्त अग्निहोत्र 'विधायक वाक्य और संन्यास विधायक वाक्य के अविरोध के लिए, भिन्न विषयों की कल्पना की गयी है। पहली बात तो हो नहीं सकती, क्योकि-वैसी कोइ श्रति नहीं है। दूसरी बात भी नहीं होगी क्यों कि-"यदहरेव विरजेत्" श्रुति वैराग्यवान व्यक्ति के संन्यास का विधान करती है, उसी से विषय का भेद सिद्ध हो जाता है, अतः उक्त कल्पना की गं जायस ही नहीं रहती "निःसंतान को यह लोक नहीं मिलता' इत्यादि श्रति भी अज्ञानी की चर्चा कर रही है, इसलिए कोई विरोध नहीं होता। “विद्वान प्रजा की कामना नहीं करते" इत्यादि श्रुति से उक्त बात स्पष्ट हो जाती है। इसी से, तीनों ऋणों की मुक्ति की बात भी कह दी गई है, ऐसा समझना चाहिए । ऋण से छूटने की बात तो अज्ञानी के लिए ही है। ___ यद्यप्युक्तमचोदना चेति सूत्रावयवेन चोदनाबोधक लिंगाद्यभावो बाधक 'इति । तदपि न साधीयः। श्रतिसाम्यादेव । श्र यतेहि "तस्मादेवं विच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः श्रद्धान्वितो भूत्वा आत्मन्येवात्मानं पश्येत्" इति । न च 'प्रमाणवस्तु परतंत्रत्वान्न ज्ञानस्य विधेयतेतिवाच्यम् इतरज्ञानस्य तथात्वेऽपि जीवात्मलक्षणेऽधिष्ठाने परमात्मनो भगवतो दर्शवस्याऽन्यतोऽप्राप्तत्वाच्छद्धान्तसाधनस्तदर्शने स्वरूपयोग्यतासंपत्तावात्मन्यधिष्ठाने . परमात्मदर्शनानुकूल प्रयत्न विधान संभवाच्छ्वण विधिना श्रु ति वाक्यज़शाब्दज्ञानानुकूल प्रयत्नः विधानवत् ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy