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________________ (५०५ ) बादरापण' आचार्य, जैमिनी के भी गुरु थे, वे शिप्य संमत. कर्मानुष्ठान को ही कर्तव्य बतलाते हुए ज्ञानार्जन को भी कर्तप्य मानते हैं क्योकि-दोनों के कत्तव्य की श्र तियाँ समान रूप से हैं। जैसे कि-'वीरह। एब देवानां इत्यादि श्रुति से, कर्म त्याग करने वाले की निन्दा की गई है वैसे ही "असुर्यानाम ते लोका" और "ये तद् विदुरमृतास्ते" इत्यादि श्रुतियों से, भगवद् ज्ञान रहित व्यक्ति की भी निन्दा की गयी हैं। इस निन्दा मात्र से हर प्रकार को समता निश्चित हो जाती है। वास्तव में तो-"तमेतं वेदानुवचनेन" इत्यादि श्रुति, केवल ज्ञान साधन से ही मुक्ति बतलाती है, तथा आश्रम कर्म को पालन करने के संबन्ध में भी श्रुतियां हैं, अतः केवल कर्म को ही अनुष्ठेय नहीं कह सकते । शुकदेव का ब्रह्मचर्य आदि कोई आश्रम नहीं था, वे केवल ज्ञान से ही मुक्त थे। उन्हें मुक्ति पाप्त हुई जिससे उपनयनादि साधनों की अनपेक्षा निश्चित होती है। न च स्वर्गकामपद श्रवणान्न वमिति वाच्यम् । त्वदभिमत लोकात्मक स्वर्गे “यन्न दुःखेन सभिन्नमिति" वाक्यशेषोक्त स्वर्गपद प्रवृति निमित्त धर्माभावात्. आत्मसुखस्यैव तादृशत्वात्तस्यैव तत्रोक्तः । एवं सति “तमेतंवेदानु. वचनेन" इति श्रुत्येकवाक्यतापि संपद्यते, अन्यथातु विरोध एव । यह नहीं कह सकते कि-"स्वर्गकाम पद का प्रयोग श्र ति में किया गया है, इसलिए उक्त कथन असंगत हैं। तुम्हारे अभिमत लोकात्मक स्वर्ग संबन्धी-'यन्न दुःखेन संभिन्नम्" इत्यादि अंतिम वाक्य में जो स्वर्गपदः प्रवृति निमित धर्म का अभाव दिखलाया गया है और आत्मसुख की विशेषता बतलाई गई है, वह ज्ञानलब्ध सुख के समकक्ष ही है इसप्रकार "तमेतं वेदानुवचनेन'' इत्यादि श्रुति से, एक वाक्यता भी हो जाती है । अन्यथा तो विरोध ही है। ननु दृष्ट फलकाअपि कारीरी चित्रादि यागाः श्र यन्त इति नैवं निर्णय इति' चेत्, उच्यते-नित्यकर्मणो हि ज्ञानसाधनत्वमुच्यते ब्रीहिपश्वादीनां तनिर्वा हकत्वात्तच्छेषत्वेन तेषां विधानम् । एवं सति वीरहेति श्रुतिः साग्निकस्य गृहिण आलस्यादि दोषेणं तदुद्वासने दोषमाह, नत्वाश्रमान्तर परिगृह इति मन्तव्यम् । अन्यथा तदुच्छेदस्तविधियर्थं च स्यात्। न चानाधिकृतमादाय तत्सयमाहिरिति वाच्यम् । अत्र पृच्छामो अंधपंग्वादिभिः प्रब्रजनं कार्यम् इति विधिरस्याहोस्विद् याबज्जीवम् अग्निहोत्र विधायकवाक्यप्रब्रजनविधायक
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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