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________________ ( ५० ) बहुत कर्म करने की संभावना भी है, किन्तु जो अखण्ड ब्रह्मावत भान कर चुके हैं, वे ब्रह्म ही है । "नतु इदं ब्रह्म" वाक्य खण्डता का द्योतक है, प्रपंच जगत के भान से भी खण्डता होती है। अखंडता और उसके भान में, कर्म और उसके अधिकार का उपमर्द उक्त वाक्य में किया गया है, अतः ब्रह्मज्ञान की कर्मशेषता को संभावना हो नहीं रह जाती। श्रुति भी इसी प्रकार की: बात कहती है -"जब सब कुछ परमात्मस्वरूप हो है तो किससे किसे देखा जाय" इत्यादि । ऊर्ध्वरेतस्सु च शब्दे हि ।३।४।१७।। अत्रेदं विचार्यते, ब्रह्मचर्यानन्तरं गार्हस्यथ्यमपि श्रु त्या बोध्यते । “ब्रह्मचर्यादेव प्रब्रजेत्" इत्यादि श्र तिभिब्रह्मचारिण एव च प्रबजिनमपि बोध्यते । एवं सत्यविरोधाय "यदहरेवेति" श्रु तेश्च रागितद्रहित भेदेन विषय दो वाच्यः। तत्र ब्रह्मचर्याविशेषेऽपि भगवदनृग्रहविशेषज चित्तशुद्धि विशेषज वेदांतार्थ परिज्ञानमेव हेतु वाच्यः "वेदांत विज्ञान सुनिश्चितार्थाः संन्यास योगात् यतयः शुद्धसत्वाः" इति श्रुतिरिममेवार्थमाह । तथा चैतादृशा एवोद्धवरेतस इत्युच्यते । एवं सति ऊर्ध्वरेतस्सु कर्माभाव उक्तरीत्या त्वयाऽप्युरीकार्य इति ज्ञान रहितानां' कर्मण्यधिकारस्तद्वतां संन्यास इति त्वदुक्ताद् विपरीतोऽर्थः सिद्धयतोतिक्व कर्म शेषत्वसंभावना जाने । अब विचार करते हैं कि ब्रह्मचर्य के बाद ग्रहस्थ का भी श्रुति में उल्लेख है तथा "ब्रह्मचर्य से ही संन्यास लेना चाहिए" इत्यादि श्रुति ब्रह्मचर्य से ही संन्यास का उल्लेख करती है। इन. दोनों विरुद्ध बातों के परिहार के लिए "यदहरेव', इत्यादि श्रुति से, रागी और विरागी के भेद से विषय भेद मानना चाहिए। इस श्रुति में, ब्रह्मचर्य के बिना भी, भगवान के विशेष अनुग्रह से जो विशेष चित्त की सुद्धि होती है, वही परब्रह्म के परिज्ञान का हेतु है, ऐसा बतलाया गया है। "वेदांत विज्ञान सुनिश्चितार्थाः" इत्यादि श्रृति इसी अर्थ का द्योतन करती है ऐसे परब्रह्म चिन्तकों को अर्ध्व रेतस कहते हैं। इस प्रकार के ऊर्ध्व रेतस महानुभावों के उक्त प्रकार के कर्माभाव को तो तुम्हें भी स्वीकारना होगा, ज्ञान रहित लोगों का कर्म में अधिकार है तथा ज्ञानी का संन्यास में अधिकार है, तुम्हारे इस कथन से विपरात अर्थ सिद्ध होता है, ज्ञान में कम शेषत्व की संभावना कहां है ?
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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