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________________ ' जो यह कहा कि-"अमिष्ठो ब्रह्म" इत्यादि में ब्रह्म शब्दे से वेद का ही उल्लेख है, परब्रह्म सूचक नहीं है, जो ब्रह्मरूप से अविकृत शब्द रूपता को जान कर, वेद का सतत अध्ययन मात्र करते हैं, उससे . किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं चाहते, उनका अधिकार ब्रह्माराधन के समान कहा गया है, अतः ब्रह्म ज्ञान को कर्मशेषता का निराकरण हो जाता है । प्रसिद्ध ब्रह्म पद अतिशय वाची है, अतः अतिशय महत्वपूर्ण वेद शब्द, ब्रह्म वाची है, उसकी आराधना भी युक्त हो है, इस प्रकार ब्रह्म पद ब्राह्मण परक भी संगत होता है [वेदों के अधिकांश भाग ब्राह्मण कहलाते हैं ] अथवा वेदाध्ययन मात्रवतः कर्मण्यधिकारो, नतु ब्रह्मविदोऽपीत्यर्थः । न च तदन्तः पातित्वेन वेदांतानामप्यध्ययनस्यावश्यकत्वे तत् प्रतिपाद्य ब्रह्मज्ञानस्या'प्यवर्जनीयत्वात्तद्वत् एव तत्राधिकार इति वाच्यम् । शाब्दपरोक्ष ज्ञानस्य ब्रह्मज्ञानत्वाभावात् । न हि, सिता मधुरेति शाब्दज्ञान मात्रवांस्तन्माधुर्यज्ञो भवति । तथा :सति पित्तोपशमादिकं तत्कार्यमपि स्यानत्वेवम् । अत एव छांदोग्ये सनत्कुमारेण "यवेत्थ तेन मोपसीत्" इत्युतोनारद ऋग्वेदमारम्य सर्प देवजन विद्या पर्यन्तं स्वाधीतमुक्त्वाह-'सोऽहं मंत्रविदेवास्मि नात्मविद्" इत्यतो अपरोक्ष ब्रह्मज्ञानमेव ब्रह्मज्ञानमुच्यते । अतएव तेत्तरीयोपनिषत्सु-"वेदान्त'विज्ञान सुनिश्चितार्था" इति पठ्यते । विज्ञानमनुभव एव नतु ज्ञानमात्रमतो दुरापास्तं कर्मशेषत्वं ब्रह्मणः । "तं विद्याकर्मणी" इत्यादिस्तु संसार्यात्मनः 'पूर्वदेहत्याग सामयिकं वृत्तान्तं निरूपयति । नतु ब्रह्मविद इति, समन्वारम्भपादिति सूत्रमुपेक्षितमाचार्येण । ... उक्त सूत्र का तात्पर्य ये भी है कि वेदाध्ययन मात्र करने वालों को ही कर्म में अधिकार है, ब्रह्मवेत्ता को नहीं है । वेद के ही अन्तिम भाग वेदान्तों का भी अध्ययन आवश्यक है, उसका प्रतिपाद्य ब्रह्म, अवर्जनीय है अतः, वेद की तरह इसका अधिकार भी मानना चाहिए। शाब्द परोक्ष ज्ञान में, ब्रह्म ज्ञानत्व का अभाव होने से भी उक्त बात हो निश्चित होती है । मिश्री मीठी होती है, ऐसे शाब्द ज्ञान मात्र से कोई माधुर्य का स्वाद नहीं पा सकता । और केवल उक्त जानकारी से पित्तोपशमन आदि मिश्री स्वाद जन्य कार्य भी संभव नहीं हैं। इसलिए छांदोग्योपनिषद् के सनत्कुमार नारद संवाद में ऋषियों द्वारा पूछे जाने पर कि-'जो जानते हो वो मुझे बतलाओ" नारद ने, ऋग्वेद से प्रारम्भ कर सर्प देव आदि विद्या तक को पढ़े हुए अपने अनुभव को बतलाकर कहा कि-"मैं केवल मंत्रवेत्ता ही हूँ, आत्मवेत्ता नहीं हूँ" इससे अपरोक्ष ब्रह्म
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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