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________________ सर्वत्याग को चर्चा करती है, इससे तो आपको बात नहीं बनती, इसका उत्तर देते हैं आचारदर्शनात् ।३।४।३॥ ब्रह्मविदामपि वसिष्ठादीनामग्निहोत्रादि करणं जैमिनिः पश्यति इति 'तदाचारं प्रामाणिकमिति च मनुत इति तन्मतमनुवदन् नियमप्यनूक्तवान् व्यासः । ब्रह्मविदांत्यागावश्यकत्वे गार्हस्थ्यमेतेषां न स्यादितिभावः । उक्त श्रुतिस्तु कर्मण्यसक्तानां तेषां त्यागमनुवति । "लोकैषणायाश्च व्युत्थाय" इति श्रुते लोक संग्रहार्थतत् करणमिति न वक्तुं शक्यम् । वशिष्ठ आदि ब्रह्मवेत्ता भी अग्निहोत्र आदि करते देखे गए, अतः जैमिनि 'उनके आचार को प्रामाणिक मानते है व्यास जी ने जैमिनि के कथन.का अनुवाद करते हुये नियम रूप से सूत्र प्रस्तुत किया । ब्रह्मवेता के लिये त्याग आव'श्यक होते हुये भी, गार्हस्थ्य में उसकी आवश्यकता नहीं है । उक्त श्रुति तो कर्म में आसक्त व्यक्ति के लिये ही त्याग की बात कहती है, जो लोग लोक संग्रह. में संग्लन है, उनके लिए "लोकषणाश्चव्युत्थाय" श्रुति कहीं गई हो ऐसा नहीं कह सकते । तच्छ,तेः ॥३॥४॥४॥ ब्रह्मविदः कर्माचार निरूपक श्रु तेरित्यर्थः, साच "जनको ह वैदेहो बहुदक्षिणेन यज्ञेनेज "इत्यादि रूपा । तथा च ज्ञानेनैवार्थसिद्धिश्चेत् स्यात्तदा तद्वत आयास साध्ये कमणि प्रवृत्तिर्न स्यादिति भावः। ब्रह्मवेत्ता के लिये कर्माचार का निरूपण करने वाली श्रुति से भी उक्त बात की पुष्टि होती है वो श्रुति इस प्रकार है-"वैदेह जनक ने बहुत दक्षिणा वाले यज्ञ से आराधना की" । यदि कहें कि-ज्ञान से ही अर्थ सिद्धि होती है, तो ज्ञान में लगे हुए व्यक्ति को कर्म में प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये, जब कि-जनक आदि के दृष्टान्त उक्त बात से विपरीत हैं। समन्वारम्भणात् ।३।४।५।। "तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते” इति श्रुतिः फलारम्भे विद्याकर्मणोः साहित्यं दर्शयति, इति न स्वातंत्र्यं विद्यायाम्। . ..
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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