SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४८४ ) प्रयोग होता है, उसमें अन्य उपासनाओं के हेतुओं (उपकरणों) का अभाव रहता है । जहाँ एक ही प्रकार की कामना से समस्त अवतार रूपों की उपासना होती है, वहाँ उनका फल भी निर्धारित होता है। . २३. अधिकरण : अंगेषु यथाश्रयभावः ।३।३।६१॥ प्रधानेषु निर्णयमुक्तवा अंगेषु तमाह-एकार्थसाधकानामुपासनानां भेदेनांगभेदेऽप्येकतरोपासने फलैक्यादंगानि तत्र समुच्चीयेरन वेति ? संशय निर्णयमाह-उपासनांगानां तदेवाश्रयस्तथा च यदंगं यदुपांसनाश्रितं तत्रैव तस्य भाव इत्यर्थः। प्रधान उपासनाओं का निर्णय करके अब अंग उपासना का निर्णय करते हैं। एकार्थ साधक उपासनाओं में भेद होता है अतः उनमें अंग भेद भी होता है, पर जहाँ फलैक्य होता है ऐसी एकतर उपासना में, अंगों का एक-सा ही रूप होगा या नहीं ? इस संशय पर निर्णय करते हैं कि-उपासना के अंग उपासना के ही आश्रित होते हैं, तथा जो अंग, जिस उपासना के आश्रित है उसका उसी में प्रयोग होगा। शिष्टेश्च ।३।३।६२॥ तत्तदुपासनं तत्तदंगविशिष्टमेव वेदे शिष्यत इति तथेत्यर्थः चकारादतिरिक्त करणे प्रायश्चित्तोक्तिरपि बाधिकेति सूच्यते। . वेद में, उपासनाओं के अनुसार ही उनके अंगों के प्रयोग का नियम दिया गया है, उससे विपरोत करने पर प्रायश्चित्त का विधान बतलाया गया है । २४ अधिकरण : समाहारात् ।३।३।६३॥ . कर्ममार्गीयोपासने निर्णयमुक्तवा ज्ञानमार्गीयोपासने तमाह अथर्वोपनिषत्सु नृसिंहोपासनादिषु मत्स्यकूर्मादिरूपत्वेनापि स्तुतिः श्रूयते । श्रीभागवते च"नमस्ते रघुवर्याय' इत्यादि रूपा स्तुतिब्रजनाथे । एवं सति रूपभेदेऽपि .भमवदवतारस्त्वस्याविशिष्टत्वादेकस्मिन रूपे रूपान्तर समाहारो दृश्यत इति . सर्वरूपत्वेनैकत्रोपासनमपि साध्वित्यर्थः ।।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy