SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * (*७६ :) शब्दाच्च मुक्तिरेव भुमपदेनोच्यते इति पूर्वपक्षः । तत्र भूम शब्देन स भाब' एवोच्यते इति सिद्धान्तः । (तर्क) उक्त भूमा प्रकरण में सुख स्वरूप की जिज्ञासा करने पर "जो भूमा है वही सुख है" ऐसा उत्तर दिया गया, भमा के स्वरूप की जिज्ञासा करने पर "जिस स्थिति में दूसरा कुछ नहीं देखता" इत्यादि से जो निरूपण किया गया है, उसे ही सर्वात्मभाव का स्वरूप कहते हो, सो नहीं हो सकता,. क्योंकि-भूमा को तो सुख रूप बतलाया गया है, जब कि सर्वात्मभाव में,. विरह भाव जन्य दु:सहदुःखानुभव की बात सनी जाती है इसलिए “यो वै 'भूमा" इत्यादि से मोक्ष सुख की ही चर्चा प्रतीत होती है “यो वै भूमा तदमृतम्" इस वाक्य से भी यही निश्चित होता है । इसके आगे “जो इसे इस प्रकार देखता है" इत्यादि कहकर “उसकी समस्त लोकों में यथेच्छ गति होती है" इत्यादि फल कहा गया है । यह फल मोक्ष के बाद तो हो नहीं सकता, अतः संशय होता है कि उक्त प्रसंग में, सर्वात्मभाव की चर्चा है या मोक्ष को ? कामचार उक्ति से तो मुक्ति की पूर्वदशा की प्रतीति होती है, मुक्ति के माहात्म्य को बतलाने के लिए ही संभवतः कामचार की बात कही गई है अमृत शब्द के प्रयोग से तो स्पष्ट रूप से ही मुक्ति को चर्चा की गई है इससे, भुमा पद मुक्तिवाची ही प्रतीत होता है। ऐसा पूर्वपक्ष है । भूमा शब्द से सर्वात्मभाव का ही उल्लेख है, ये सिद्धान्त को बात है। तत्र दुःखदर्शनानुपपत्त्या सर्वाधिकत्व लक्षणं भूमत्वमनुपपन्न मिति शंका परिहरति-भूम्नः सर्वात्मभावस्य ज्यायस्त्वं सर्वस्मान्मंतव्यम् तत्रोक्तानुपपत्ति परिहारार्थ दृष्टान्तमाह-कृतुवदिति-दर्शपूर्णमास प्रकरणे तैत्तरीयके पठ्यते "परमेष्ठिनो वा एव यज्ञोऽन आसीत्तेन स परमां काष्ठांमगच्छत्" इत्युपक्रम्य “य एवं विद्वान्दर्शपूर्णमासौ यजतेपरमामेव काष्ठां गच्छति" इति । यथा ब्रतादि दुःखात्मकत्वेऽपि परमकाष्ठा लक्षण फलगमकत्वेन दर्शपूर्णमासयोः. सर्वक्रतुभ्योऽधिकत्वं वक्तुं "अग्र आसीत्" इतिश्रूयते, तथा दुःखहेतुत्वेऽप्यनन्यलभ्यसाक्षात् पुरुषोत्तममानंद प्राप्ति हेतुत्वेन सुखरूपत्वमुच्यत इत्यन्येभ्यः. सर्वेभ्यज्यायस्त्वं मन्तब्यमित्यर्थः । अत्रोपपत्तिमाह-तथाहि दर्शयति-श्रुतिस्तु “स एवाधस्तात्" इत्यादि उक्त्वा "तथाहंकारादेश" इत्यादि उक्त्वा "आत्मादेश" इत्यादि उक्तत्यग्रे चैतादृशास्यात्मन एव प्राणाशास्मरादि सर्वमिति च दर्शयति एतत् सर्वात्मभाववत्येव सर्वमुपपद्यते, न मुक्तस्य । वृत्तिभेदाभावात् प्राणाद्यभावाच्च । जीवन्मुक्तिदशायां प्राचीनानामेव सत्वात् “आत्मनः प्राणाः" इत्यादि न वदेत् । यद्वा ननु लोकेऽपि शृंगाररस भाववति पुसिनार्या"
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy