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________________ (805") * जैसे कि कोई एक मंत्र बहुत से कर्मों से संबद्ध होता है कोई मंत्र दो कर्मों से संबद्ध होता है तो कोई एक ही जगह प्रयुक्त होता है, उसी प्रकार की व्यवस्था उक्त सिद्धान्त में भी है। सूत्र में आदि पद कर्म की ओर इंगन कर रहा है, अर्थात् मंत्र की तरह कर्म भी है, जहाँ काम्यकर्म से ही नित्यकर्म का निर्वाह होता है वहाँ कामितार्थं ही साधक होता है, उस स्थिति में प्रत्यवाय का परिहार भी उसी कर्म से होता है । तथा सर्वतोमुख यज्ञ कर्म में अनेक होता प्रवर और अनेक अध्वर्यु प्रकार के ग्रहण में "देवाः पितरः" इत्यादि यजमान कर्त्ती क एक ही अनुमंत्रण से सबका संबंध हो जाता है । इसी प्रकार, विधिपूर्वक यदि कर्म ज्ञान आदि किसी भी एक का वरण कर लिया जाय तो उन निष्ठाओं के बाद अंत में भक्ति निष्ठा में हो जाकर उन निष्ठाओं की परिसमाप्ति होगी, अतः उपर्युक्त दृष्टान्त इस प्रसंग में विरुद्ध नहीं है । ॐ का उच्चारण करने के बाद ही मंत्रों का उच्चारण होता है इससे सिद्ध होता है कि——-ओंकार आदि मंत्र है, वह जैसे ब्रह्मात्मक होने के कारण सभी मंत्रों से संबद्ध है, वैसे ही भगवद् वरण भी सबसे संबद्ध है । यद्यपि अन्य निष्ठाओं के अन्तरभूत भक्तिनिष्ठावान भी उसी प्रकार वरणीय होता है जैसे कि विशुद्ध भक्तिनिष्ठ व्यक्ति, फिर भी उत्कृष्ट मार्ग में वरणीय व्यक्ति की नीची कक्षा के व्यक्ति से समता करना उचित नहीं है, इसी आशय से द्वितीय पक्ष को प्रस्तुत किया गया है । वास्तव में तो जहाँ साधन मर्यादा से भक्ति की निष्ठा होती है, वहीं सही वरण होता है वहाँ किसी प्रकार की अड़चन नहीं होती । १९ अधिकरण : भूम्नः ऋतुवज्ज्यायस्त्वं तथाहि दर्शयति ( ३ | ३|५७॥ / ननु सुख स्वरूप जिज्ञासां "यो वै भूमा तत् सुखम्" इत्युक्तं भूम स्वरूपजिज्ञासायां "यत्रनान्यतपश्यति" इत्यादिना तद् यन्निरूपितं तत् सर्वात्मभावस्वरूपमिति तदुक्तं तनोपपद्यते । भूम्नो हि सुखरूपतोच्यते सर्वात्मभावे तु विरह भावे दुःसहदुःखानुभवः श्रूयते । तेन मोक्ष सुखमेव “यो वै भूमा " इत्यादिनोच्यते । “यो वै भूमा तदमृतम्” इति वाक्याच्च अग्रे च " स वा एष एवं पश्यन्” इत्याद्युक्त्वा "तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति" इति फलमुच्यते । तच्च मोक्षानन्तरमसंभव्यतः स भावो, मोक्षो वात्रोच्यते ? इति संशयः । तत्र कामंचारोक्तेमुक्तिपूर्वं दशायां तन्माहात्म्यनिरूपणार्थ स्वादमृत
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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