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________________ ( ४७१ ) वतो लोकेसंबंधे युक्तिसहोऽपि नेति ज्ञापनाय हि शब्दः । किंच एतदन "न पश्यो मृत्यं पश्यति'' इति श्रुत्या यथामृत्युनिषेधः क्रियते तथा "आत्मन एवेदं सर्वम्" इति श्रु त्यैवकारेणात्मातिरिक्त व्यवच्छेदः क्रियत इति मृत्युवल्लोकोऽपि न संबंध्यत् इत्याह-मृत्युवदिति -तत्र रोगादीनामपि दर्शन निषेधे सत्यपि मृत्योरेव यन्निदर्शनमुक्तं तेन भक्तानां लोकान्तरसंबंधः तत्तुल्य इति ज्ञाप्यते अतएव, "नोतदुःखमिति दुःख सामान्य निषेवेऽग्रकृतः । जैसा श्रुति का अर्थ है वही सही है, लौकिक युक्ति उस संबंध में नहीं दी जा सकती, सर्वात्मभाव की तरह, “नान्यत पश्यति' इत्यादि धर्मविशिष्ट आत्मा, प्राण आदि समस्त वस्तुओं से सम्बद्ध होते हुए भी, लौकिक आत्माओं से विलक्षण है। उक्त प्रसंग में ही आगे-“न पश्यो मृत्यं पश्यति" इत्यादि श्रुति से जैसे मृत्यु का निषेध किया गया है वैसे ही "आत्मन एवेदं सर्वम्" इत्यादि श्रुति से,-"एव" पद से,आत्मा से अतिरिक्त जागतिक पदार्थों का व्यवच्छेद किया गया है । मृत्यु की तरह, लोक से भी संबंध नहीं है, अर्थात् उक्त वाक्य में सर्वात्मभावसंपन्न जीव को रोग आदि से रहित बतलाया गया है पर मृत्यु को आवश्यक बतलाया है, जिससे निश्चित होता है कि--ऐसे भक्तों का लोकान्तर संबंध, सामान्य जीवों की तरह ही होता है : 'नोत दुःखम्" इत्यादि में तो सामान्य दुःखों का निषेध है। परेण च शब्दस्य ताद्विध्यं भूयस्त्वात्वनुबंधः ।३।३।५२॥ अत्र हेत्वन्तरमाह, अस्मिन्नेव श्लोके 'सर्वमाप्नोति सर्वश" इति परेण पदेन शब्दस्य श्रुति वाक्यस्यात्मन एवेदं सर्वम् इति यत् पूर्वोक्ति श्रुति वाक्यं तद्विधतव प्रतीयते इति न लोक संबंधो वक्तुं शक्य इति अर्थः । नन्वात्मन एवेदं सर्वमिति यत्पूर्व श्रुति वाक्यं तेनैवैतदर्थलाभे पुनस्तदुक्तिनोचितेत्याशंकायां तत्र हेतुमाह-तु शब्दः शंकानिरासे । भूयस्त्वाद् हेतोः । उक्तेऽर्थे हेतूनां बाहुल्ये तद् दाढ्यं भवति इत्याशयेनोक्तार्थस्यैव श्लोकेनानुबंधः कृत इत्यर्थः। अथवा भूयः पदमाधिक्यार्थम् । तथा च स्वकृत साधनसाधित फलापेक्षया स्वयमुद्यम्यभगवता साधितफले निरवधिरुत्कर्ष इति ज्ञापनाय पुनः श्लोकेन तथेत्यर्थः । उक्त बात को सिद्ध करने के लिए दूसरा हेतु प्रस्तुत करते हैं कहते हैं कि-इसी श्लोक में- “सर्वप्निोति सर्वश" इत्यादि पर पद से श्रति वाक्य .
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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