SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४६६ ) वक्तो भक्तस्य यत्प्रकारिका भगवद्विषयिणी प्रज्ञा तमेब प्रकारं स भावः साधयति नान्यमिति न मुक्तो पर्यवसानमित्यर्थः । अत्र व्यासः स्वानुभवं प्रमाणत्वेनाह-दृष्टश्चेति । उक्त भाववतो भक्तस्य प्रभुस्वरूप दर्शनाद्यतिरिक्तफलाभावोऽस्माभिरेव दृष्ट इत्यर्थः । एतादृशा अनेके दृष्टा इति नैकस्य नाम गृहीतम्। अत्र शब्दमपि प्रमाणमाह-तदुक्तमिति, भगवतेति शेषः । श्री भागवते दुर्वासस प्रति “अहं भक्त पराधीन" इत्युपक्रम्य “वशी कुर्वन्ति माँ भक्त्या सस्त्रियः सत्पति यथा" इति । यो हि यद्वशीकृतः स तदिच्छानुरूपमेव करोत्यतो न सायुज्यादिदानं, किन्तु भजनानंद दानमेव । तेषांमुक्त्यमिच्छा तु "मत् सेवया प्रतीतं च सालोक्यादिचतुष्ठयम , नेच्छन्ति सेवयापूर्णः कुतोऽन्यत् काल विप्लुतम्" स्वर्गापवर्गनरकेप्वपि तुल्यार्थ दर्शिनः । “सालोक्यसाष्टि सामीप्य सारूप्यकत्वमप्युत, दीयमानं न गृह णन्ति बिना मत्सेवतं जनाः" इत्यादि वाक्य सहस्र निर्णीयते। ___ सर्वात्मभाव का भी मुक्ति में ही पर्यवसान होता है या नहीं ? इस संशय पर दृष्टान्त देते हैं-"प्रज्ञान्तरपृथक्त्ववत्" अर्थात मुमुक्षु भक्त की अपनी इष्ट दानता रूप से जो भगवद् विषयिणी प्रज्ञा होती है, वह सर्वात्मभाव, वाले भक्त की प्रज्ञा से, भिन्न कही गई है । जो कि-कर्म ज्ञान और उनसे भिन्न भक्त प्रज्ञाओं से पृथक होने से, उनके इष्ट का ही साधन करती है । सर्वात्मभाव वाले भक्त को जिस प्रकार को भगवद् विषयिणी प्रज्ञा होती है उसी प्रकार के भाव का साधन करती है, अन्य प्रकार का साधन नहीं करती, इसलिए सर्वात्मभाव का मुक्ति में पर्यवसान नहीं होता। इस विषय में व्यास जी अपने अनुभव को, प्रमाणरूप से प्रस्तुत करते हैं-"दृष्टश्च" अर्थात् उक्त भाव वाले भक्त का प्रभुस्वरूप दर्शन के अतिरिक्त कोई दूसरा फल नहीं होता, ऐसा हमने भी देखा है। इस प्रकार के अनेक भक्त देखे हैं इसलिए किसी एक का नाम नहीं लिया 1 इस विषय में शब्द भी प्रमाण हैं, इस भाव को बतलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-"तदुक्तम्" अर्थात् भगवान ने ही कहा है-श्री भागवत में दुर्वासा से भगवान कहते हैं कि- “मैं भक्त के पराधीन हूँ" भक्त लोग मुझे पतिब्रता स्त्री की तरह वश में कर लेते हैं।" इत्यादि जो जिसे वंशगत कर लेता है, वह वंशगत उसकी इच्छा के अनुसार करता है, इसलिए भगवान भक्त को सायुज्य आदि मोक्ष न देकर भजनानंद प्रदान करते हैं, क्योंकि भक्त को मुक्ति की इच्छा नहीं होती जैसा कि-"भक्तों को मेरी सेवा में ही सालोक्य आदि मुक्तियों को प्रतीति होती है, वे सेवा से पूर्ण भक्त कहीं अन्यत्र कालक्षेप
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy