SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५४ ) नियम के त्याग और अविहित कर्म करने से चित्त में मलिनता होती है जिसके फलस्वरूप ज्ञान तिरोभूत हो जाता है। यह व्यवस्था ज्ञानमार्ग की ही है। भक्ति मार्गीय भक्त पर तो आपत्ति आ ही नहीं सकती जैसा कि "अनन्याश्चिन्तयन्तो माम" इत्यादि भगवद् वाक्य से ज्ञात होता है कि भक्त ये योग क्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं, अतः भक्त का निर्वाह हो जाता है, उसके समक्ष वैसी समस्या हो नहीं आती। तृतीय अधिकरण ज्ञान होने पर आश्रम कर्म कर्त्तव्य हैं या नहीं ? इस पर कर्तव्य नहीं हैं इस पूर्वपक्ष का निरास कर कर्तव्यता का पक्ष सिद्धान्ततः स्वीकारते हैं । निश्चित करते हैं कि भगवद्धर्म आत्मधर्म है तथा आश्रम धर्म बहिरङ्ग है अतः इनमें कोई विरुद्धता नहीं होती इस नाते पालनीय है । चतुर्थ अधिकरण भगवद् भक्तों की कभी सायुज्य मुक्ति होती है या नहीं ? इस संशय पर होती है, इस पूर्वपक्ष का निराकरण कर निश्चित करते हैं कि नहीं होती। भागवत पंचम स्कन्ध में स्पष्ट उल्लेख है "भगवदीयत्वेनैव परिसमाप्त सर्वार्था" अर्थात् भगवदीय हो जाने मात्र से समस्त मोक्षों की महत्ता समाप्त हो जाती है। पञ्चम अधिकरण पुम्टिमार्गीय भक्तों को ब्रह्मलोकाधिकार प्रदान कर भगवान उन्हें उन लोकों से सम्बन्ध फल देते हैं या नहीं ? इस पर पूर्वपक्ष का निराकरण कर, नहीं देते ऐसा सिद्धान्त निश्चित करते हैं। षष्ठ अधिकरण प्रचुर भगवद्भाव मात्र से साक्षात स्वरूप भोग करने वाले भक्तों को गृह त्याग करना चाहिए या नहीं ? इस संशय पर पूर्वपक्ष कहता है कि जब फल सिद्धि हो गई तो त्याग की क्या आवश्यकता है। इस पर सिद्धान्त कहते हैं कि "त्वंतु सर्व परित्यज्य" इत्यादि में भगवान ने सर्वोत्तम भक्त उद्धव को गहत्याग की आज्ञा दी है, उद्धव ने वैसा किया भी-धर प्रतिबन्धक ही नहीं होता अपितु विपरीतरसानुभावक होता है, अतः त्याग करना चाहिए।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy