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________________ दिना आनंदस्य स्वरूपमुक्त्वा 'आनंदं ब्रह्मणो विद्वान न विभेति कुतश्चन्', इति श्रुत्युक्तं यत् पूर्वोक्तं रसात्मक पुरुषोत्तम भजनानंदानुभवोत्तरकालीनमकुतोभयभित्यर्थः। सर्वात्मभाव एक मात्र अनुभव वेद्य है, इस भाव के पूर्व तो उसका ज्ञान रहता नहीं अतः ईप्सित प्राप्ति संभव नहीं हो सकती, एकमात्र भगवत्कृपा दान से ही सर्वात्मभाव प्राप्त होने से इष्ट प्राप्ति होती है, यही उक्त सूक्ति का तात्पर्य है। दूसरा अर्थ ये भी हो सकता है कि- सर्वात्मभाव से मुझे प्राप्त करो, इस अर्थ में प्रदानवत् का अर्थ पहिले अर्थ की तरह ही होगा साधन साध्यता के विषय में प्रमाण देते हुए कहते हैं तदुक्तम्-अर्थात् "यह आत्मा, प्रवचन से, मेधा से या अधिक शास्त्र चिन्तन से प्राप्त नहीं है वह जिसे वरण करता है, उसे ही प्राप्त है" इत्यादि श्रुति में, वरण के अतिरिक्त साधन से उसे अप्राप्य बतलाया गया है । यही अर्थ उद्धव को दिये गए उक्त उपदेश का भी है । भगवान् ने जो अकुतोभय पद का प्रयोग किया है उसका अर्थ मुक्ति नहीं है, . अपितु "यतो वाचो" इत्यादि से श्रुति में आनंद का स्वरूप बतलाकर "आनंद ब्रह्म को जानकर किसी से नहीं डरता" इस श्रुति में जिस रसात्मक पुरुषोत्तम भजनानंदानुभव के बाद की स्थिति का वर्णन है, वही, अकुतोभय पद का तात्पर्य है। १७. अधिकरण : लिंगभूयस्त्वात्तद् हि बलीयस्तदपि ।३।३।४४।। ननु प्रतिबन्धककालादृष्टादि सद्भावेऽपि वरण कार्य स्यादुत तन्निवृत्ताविति संशये प्रतिबंधकाभावस्य सर्वत्र हेतुत्वात् तन्निवृत्तावेव तथेति पूर्वपक्ष सिद्धान्तमाह-लिंगेत्यादिना । सामोपनिषत्सु नवमे प्रपाठके सनत्कुमार नारद संवादे प्रथमत एव मुख्यब्रह्मविद्योपदेशार्हा न भवतीति ज्ञात्वा सनत्कुमागे नारदाधिकारं च ज्ञातु "यद् वेत्थ तेन मोपसीदेत्" इत्युक्तोनारदः स्वयं विदितम् ऋग्वेदादि सर्पदेवजनविद्यान्तमुक्त्वा "सोऽहंभगवो मंत्रविदास्मीति स्वाधिकार मुक्त्वाह" नात्मविच्छ तं ह्य वमेव भगवदृशेभ्यस्तरति शोकमात्मविदितिसोऽहं भगवः शोचमितं मां भगवन् शोकस्य पारं तारयतु "इति
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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