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________________ ( ४५५ ) रूप भगवत शरण को ही सर्वात्मभाव कहा गया है, जिससे सर्वात्मभाव स्वप्रयत्न साध्य हो प्रतीत होता है । पूर्वपक्ष साधन साध्यपक्ष ही मानता है । तत्र सिद्वान्तंवक्तुं तदुपदेश स्वरूपमाह-प्रदानवदिति- यद्ययंसाधनोपदेशः स्यात, स्यात्तदा साधनत्वेन सर्वात्मभावेन शरण प्राप्तेः स्वकृतिसाध्यत्वं न त्वेवं किन्तु, तदुक्तं भगवदुक्तम् । प्रदानवत्-प्रकृष्टं दानंवरदानमिति यावत् तद्वदेवेंत्यर्थः । वरेण हि स्वकृत्यसाध्यमपि सिद्धयतीति । तथाशत्रुसंहारभयादिनाऽपिशरणाप्तिर्भवति । तत्र न तस्याः पुरुषार्थत्वं, किन्तु तन्निवृतेरेव । प्रकृतेऽपि सर्वात्मभावे स्वरूप प्राप्ति विलम्बासहिष्णुत्वे नात्यार्त्या स्वरूपातिरिक्ता स्फूर्त्या तद्भावस्वाभाव्ये गुणगानादि साधनेषु कृतेष्वप्यप्राप्ती स्वाशक्यत्वं ज्ञात्वा प्रभुमेवशरणं गच्छत्येतच्च न स्वकृतिसाध्यमिति सुष्ठूक्तं प्रदानवदति । भक्तस्येप्सितोऽर्थो हि वरो भवति । उक्त विषय में सिद्धान्त बतलाने के लिए उसके उपदेश का स्वरूप सूत्रकार वतलाते हैं कि-यह उद्धव को सर्वात्मभाव शरण प्राप्ति, रूप साधनोपदेश भगवान द्वारा दिया गया है, जो कि वरदान के समान है, वर से तो स्वकृत्य साध्य वस्तु भी सिद्ध हो जाती है । शत्रु संहार के भय आदि से भी शरण प्राप्ति होती है, उसे पुरुषार्थ तो नहीं कह सकते, अपितु वह तो भय निवृति के लिए शरण में जाना कहा जायेगा । सर्वात्मभाव में जो शरण में जाने की बात है वहाँ प्रभु, स्वरूप प्राप्ति के विलम्ब को सहन न कर बड़े आकुल भाव से, स्वरूपातिरिक्त स्फूर्ति से अन्य भाव में स्वाभाविक रूप से निमग्न भक्त को, गुणगान आदि भाव से अब यह मुझे नहीं पा सकेगा, अपने शरण में लेकर ही इसका उद्धार करना चाहिए, इस भाव से उसे सर्वात्मभाव की प्रेरणा प्रदान करते हैं; अतः इसे स्वकृति साध्य कैसे कह सकते हैं, प्रदान वत कहना ही ठीक है। भक्त की ईप्सित पूर्ति के लिए ही वर होता है। सर्वात्मभावस्यानुभवकवेद्यत्वेन पूर्वमज्ञानेनेप्सितत्वासम्भवेऽपि स्वत एव कृपयादानमिति नवदित्युक्तम् । अयवा सर्वात्मभावेन मां याहीति संबंधः । यद्वा प्रदानवदित्स्य पूर्ववदेव व्याकृतिः । तत्र साधन साध्यत्वे प्रमाणमाह - तदुक्तमिति । “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहधाश्रुते न यमेवैनवृणुते तेन लभ्यः,' इति श्रुत्यावरणातिरिक्तसाधनाप्राप्यत्वमुच्यते इति तत्तथैवेत्यर्थः । भगवदुक्ताऽकुतोभयपदस्य न मुक्तिरर्थः, किन्तु "यतोवाच" इ-या
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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