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________________ ( ४४३ ) सर्वान्तरत्वेन श्रुतौ कथनाद् भवतीति पूर्वः पक्षः तथात्वेऽपि "सर्वस्यवशी "सर्वस्येशान : " इत्यादि श्रुतिभिरेवमेव ज्ञानं न तु तथेति सिद्धान्तः । अत्र तथा ज्ञानाभावस्यावश्यकत्वार्थ विपरीतै बाधकमाह । पूर्वस्मिन् सूत्रे ब्रह्मानन्दाद्भजनानंदस्याधिक्यं निरूपितम् स तु भगवद्दत्तस्तद्व्यवधायकोऽर्थश्च प्रभुणा न -संपाद्यते । स्वात्मत्वेन ज्ञानं च भजनानंदान्तरायरूपम् । यद्येतत् संपादयेत्तं न - दद्यादग्रेऽन्यथा भावादतः स्वात्मत्वेन ज्ञानं भक्तिमार्गीयस्य न संभवतीत्याशयेनाह - अन्तरा स्वात्मन् इति । भगवता भक्तिमार्गे स्वीयत्वेनांगीकृतो य आत्मा जीवस्तस्य यदात्मत्वेन ज्ञानं तद्भजनानंदानुभवे अन्तरा व्यवधानरूपम् इत भगवता तादृशे जीवे तन्न संपाद्यत इत्यर्थः । तत्संपादनस्य सर्वथैवासंभावितत्वं हीनत्वं च ज्ञापयितुं दृष्टान्तमाह-भूर्त ग्रामवदिति उक्त भक्तस्य विग्रहोऽप्यलौकिक इति तत्र लौकिको भूतग्रामो न संभवति, हीनत्वात्तथेत्यर्थं । अथवा लौकिको भूतग्रामः स्त्री पुत्र पश्वादिब्रह्म नंदानुभवे बाधकस्तथा भजनानंदानुभवे स्वात्मत्वेन भगवत् ज्ञानमित्यर्थः । ज्ञान मार्ग में जैसे अपने आत्मा के रूप में ब्रह्मज्ञान होता है वैसा ही भक्ति मार्ग में भी, भक्ति से पुरुषोत्तम ज्ञान में अपने आत्मा के रूप में, पुरुषोत्तम ज्ञान होता है या नहीं ? इस पर विचार करते हैं । परमात्मा सर्वान्तर्यामी हैं इस श्रुति के अनुसार तो होता है, ऐसी एक मान्यता है । सर्वान्तर्यामी होते हुए 'भी "सर्वस्यवशी सर्वस्येशानः" इत्यादि श्रुति से निश्चित होता है कि — अपने आत्मा के रूप में पुरुषोत्तम ज्ञान हो नहीं सकता, ये सिद्धान्त की बात है । पुरुषोत्तम भाव में तो ज्ञानाभाव होना आवश्यक है, उसमें तो आत्मत्व ज्ञान, विपरीत और बाधक है । पूर्व के सूत्र में ब्रह्मानंद से भजनानंद की अधिकता बतलाई गई है, वह भी भगवान द्वारा दिया जाता है, अतः उसमें अड़चन डालने वाली वस्तु (आत्मज्ञान) प्रभु, नहीं दे सकते । अपने आत्मा के रूप में होने -वाला ज्ञान तो भजनानंद का बाधक है यदि उस ज्ञान की अनुभूति प्रभु कराते हैं तो वे भजनानंद नहीं दे सकते हैं, भजनानंद देकर बाद में उससे विपरीत भाव नहीं दे सकते । इससे निश्चित होता है कि भक्तिमार्गीय साधक को अपने आत्मा के रूप में पुरुषोत्तम प्राप्ति नहीं होती । इसी आशय से - " अन्तरा स्वात्मन्" इत्यादि सूत्र कहा है । भगवान भक्तिमार्ग में आत्मीय रूप से स्वीकार किये गए जिस जीवात्मा को भजनानंद में लगा देते हैं, उसे उस मार्ग की व्यवधान रूप आत्म ज्ञान रूप तुच्छ वस्तु से संलग्न नहीं कर सकते । वैसा करना नितान्त असंभव और होनता का ज्ञापक है इस पर दृष्टान्त देते हैं कि उक्त
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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